Monday, July 20, 2009

समलैंगिकता: संस्कृति और संविधान

डेली न्यूज एक्टिविस्ट में प्रकाशित

समलैंगिकता: संस्कृति और संविधान

सुनीता शानू

समलैंगिगकता के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ही अंतिम फ़ैसला करेगा, फ़िर भी इस विषय पर वैचारिक बहस शुरू हो चुकी है।ये सच है कि स्त्री-पुरूष के बीच आपसी संबंध ही एक सुन्दर समाज का निर्माण कर सकता हैं, किन्तु धारा ३७७ के असवैंधानिक करार होते ही कुछ पाशविक प्रवृति के लोगो का जागरूक हो जाना कोई आश्चर्य वाली बात नही होगी, आये दिन सामाज में ऎसी घटनाएं देखने को मिल रही हैं कि अमुक संस्था के पालक ने वहाँ के अबोध बालको का शारीरिक शोषण किया, या नौकरी देने का झांसा देकर बुलाया और उसके साथ अश्लील हरकते की। क्या ऎसा नही लगता की बरसों पुराने कानून को असवैधानिक करार कर हमने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है?

अधिसंख्य प्राणी काम और संतानोत्पति की एक-सी प्रक्रिया ही अपनाते हैं, किन्तु एक छोटा सा वर्ग ऎसा भी है जो कुछ अलग हट के है। जिनकी इच्छा अपने ही जैसे लोगो से प्यार करना है, कल तक इसे अपराध माना जाता था, और याचिका दायर करने वाले संगठन नाज फ़ाऊँडेशन का कहना है कि इस कानून की वजह से ही भारत में इस तबके को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था, लोग इन्हे उपेक्षा की नजरों से देखते हैं, कई बार ऎसे स्त्री व पुरूष जो समलैंगिक,उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर है कुछ अपराधिक प्रवृतियों की नजर में चढ़ जाते हैं, व समाज के डर से उनके द्वारा ब्लैकमेल भी होते रहते है, जिनमे से बहुत बार कुछ प्रतिष्ठित लोग बदनामी से बचने के लिये आत्महत्या तक कर लेते हैं। इन सब बातों के रहते सरकार ने ये फ़ैसला किया ताकि समलैंगिकको को भी समाज में बराबरी का स्थान मिल सके। सरकार उन लोगो को भी समाज में पूरा स्थान देना चाहती है, जो अपने इस कृत्य से उपेक्षित माने जाते हैं, बहुत से डॉक्टर्स का यह भी फ़ैसला है कि यह अपराध नही है न ही कोई बीमारी है, तो फ़िर यह क्या है? बस यही सवाल एक आम नागरिक को झकझोर रहा है।

मानवियता से हटकर पशुओं की भाँती यौनाचार की पद्धति को क्या अपराध नही माना जायेगा? क्या इसे कोई मानसिक बीमारी नही मानी जायेगी? जब कोई व्ययस्क किसी दूसरे व्ययस्क की मर्जी के खिलाफ़ उसे यौन-उत्पीड़न का शिकार बना लेता है क्या वह भी अपराध नही माना जायेगा? कितनी ओर ऎसी धाराएं हैं जो निरस्त की जायेंगी। और निरस्त ही करना था उन्हे बनाया क्यों गया? एक दूसरा पहलू यह भी है कि यह धारा नाबालिगों पर हो रहे यौन-उत्पीड़न पर अपराधियों को सजा देने के लिये भी बनाई गई थी, इसका प्रयोग भूतपूर्व न्यायाधीश जे एन सल्डाहा ने भी एक नाबालिग बच्चे को इन्साफ़ दिलाने के लिये किया था। इस धारा का उपयोग देखते हुए तो इसे निरस्त करना बेबुनियाद है। इस फ़ैसले की आड़ में वो पुरूष व स्त्री भी स्वतंत्र हो जायेंगे जो अवैध तरीको से यौनाचार में लिप्त रहते हैं, जो समलिंगी नही हैं परन्तु जिनमें सैक्स को लेकर पाशविक प्रवृति जागरूक है, ऎसे व्यक्ति जो अपने सहचर को छोड़ दूसरे लोगों से सम्बंध बनायेंगे। ऎसे व्यक्तियों से उनके परिवार में अनेक बीमारियों का पैदा हो जाना लाजमी है।

वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाईजेशन के मुताबिक समलैंगिकता दिमागी बीमारी नही हैं,यह एक व्यवहारिक दिक्कत है, अब इस व्यवहारिक दिक्कत से उनका क्या तात्पर्य है व्यवहारिक दिक्कते तो सुलझाई जा सकती हैं, अगर किसी विपरीत लिंगी से सम्बंध व्यवहारिक दिक्कतों की सूची में आता है तो प्रकृति के बनाये नियमों में उलट-फ़ेर कैसे सम्भव है? क्या आज का इन्सान पशुओं से भी गया-गुजरा हो गया है? क्यों नही देश की भलाई को ध्यान में रखते हुए, आज का इन्सान एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक हो पाता। आज एक से बढ़ कर एक उपचार हैं, योग और ध्यान के द्वारा भी इससे निजात पाई जा सकती है, अगर सरकार चाहे तो ऎसे सुधार केंद्र खोल सकती है जहाँ राह से भटके हुए लोगो को सही दिशा की ओर ले जाया जा सकता है।

कोर्ट का यह फ़ैसला की आपसी सहमति से समलैंगिक रिश्ता कोइ जुर्म नही हैं, कहना समाज को एक गलत दिशा की ओर मोड़ता है। एक ऎसा समाज जहाँ सिर्फ़ अप्राकृतिक वातावरण ही जन्म ले सकता है। जहाँ रिश्तों की कोई अहमियत नही रहती।एक वक्त ऎसा भी आ जायेगा, जब माँ बाप अपने बच्चों को चाहे वो अपने समलिंगी सहपाठी के सिर्फ़ मित्र ही हों शक की नजर से देखेंगे। और अगर एसे ही समाज का विकास होता चला गया, परिवार कैसे बन पायेगा? आज की नौजवान पीढ़ी बस आज के साथ जी रही है, इसी कारण आये दिन बुजुर्गों का अपमान होता है, परिवार का विघटन होता जा रहा है, संयुक्त परिवारों से आज एकाकी परिवार ज्यादा नजर आते हैं, भारत की मर्यादा, संस्कृति को ये वर्ग ताक पर रख एक ऎसे समाज की सरंचना करना चाहता है जहाँ से शुरू होता है भारत की संस्कृति का पतन।
 
मुझे नही लगता की इससे किसी के मौलिक अधिकारों पर अकुंश लगाया जा रहा है, या स्वाधीन भारत में इस वर्ग की स्वतंत्रता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है, क्या कभी ऎसा देखा है कि किसी पागल आदमी को खुला छोड दिया गया हो? या किसी बीमार का इलाज किये बिना बीमारी ठीक हो गई हो? शायद यह भी एक ऎसी बीमारी है जो किन्ही विशेष कारणों से पनपति है, एक पहलू तो यही सामने आया है कि जो लोग पाशविक प्रवृति के हैं वो नाबालिग बच्चों को अपना शिकार बना लेते हैं और उनमें बचपन से ही यह कुंठा जन्म ले लेती है, या फ़िर किसी विशेष परिस्थिति में विपरीत लिंगी से नफ़रत पैदा हो जाये। कोई भी कारण हो सकता है। एक सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि नर हो या मादा सभी में कुछ प्रतिशत दोनो ही गुण पाये जाते हैं, किन्तु कभी-कभी ऎसा भी होता है कि नर में मादा के और मादा में नर के अधिक मात्रा में गुण पाये जाते हैं, यह आनुवंशिक होता है। किन्तु इसका यह मतलब कतई नही की उसे इलाज देने की अपेक्षा समाज को गंदा करने की पूरी छूट दे दी जाये। बेहतर समाज बनाने के लिये यह आवश्यक है की इसका निर्माण पुरूष व स्त्री दोनो मिलकर करें। सलैंगिकों को खुली छूट देकर ऎसा लगता है सरकार ने कोई नई परेशानी मोल ले ली है। यह धमाका भी किसी एटम बम से कम तो नही है?

डी एम ए के पूर्व अध्यक्ष डॉ के अग्रवाल यह मानते है कि 99 पर्सेंट देशों में पाँच फ़िसदी आबादी का उसी सैक्स के प्रति आकर्षण होता है, और इस जानकारी का फ़ायदा उठाने में वोटो की चाह रखने वाले भी कम नही हैं, देश हो या विदेश हर तरफ़ इस तबके के प्रति सवेंदना व्यक्त करके, इन्हे बड़े-बड़े वायदो में लपेट के, इनक भरपूर फ़ायदा उठाया जा रहा है।किन्तु भारत वासी यह क्यों भूल रहे हैं कि भारत की संस्कृति भारत की शान है। इसी संस्कृति ने बड़े-से बड़े खतरों का सामना बहादूरी के साथ किया है। विदेशों में हो रहे पारिवारिक मूल्यों के विघटन की जिम्मेदार वहाँ की संस्कृति है, परन्तु भारत देश में यही संस्कृति मानविय मूल्यों को समेटे एक स्वस्थ समाज के निर्माण की परिचायक है

समलैंगिकता किसी महामारी से कम नही है, इसे दिमागी दिक्कत का नकाब पहना कर कुछ सिरफ़िरों ने समाज में शामिल किया तो है, मगर आने वाले कल में वह दिन दूर नही जब भारत में भी अनैतिकता का बोलबाला होगा। आये दिन पति अपनी पत्नी से और पत्नी अपने पति से यह कह कर छुटकारा पा लेगी की हम किसी से भी यौनसम्बंध रखने के लिये स्वतंत्र हैं।और एक ऎसा समाज विकसित हो जायेगा जहाँ माता-पिता भाई बहन के रिश्तों का कहीं कोई नाम भी न होगा।

सुनीता शानू

10 comments:

  1. main aapki bato se buri tereh se sahmat hun..main ayese logon ko janta hun jo kabhi in tathakathit difrent sex walo ki pashwikta ke shikar huye hain....
    anjule shyam maurya
    anjuleshyam@gmail.com

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  2. सही कहा है आपने इस तरह की बातों से परिवार व्यवस्था टूट जायेगी ...एक तरह से समाज ही बिखर जायेगा...

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  3. इस गंभीर विषय पर बहुत सार्थक आलेख. आवश्यक्ता है उन्माद से बाहर निकल गंभीर चिन्तन की. बधाई.

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  4. हिंदी पत्रकारिता जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है ,उसमे भीड़ के पीछे भागने का शगल साफ़ नजर आता है ,विचारिक सहमती और असहमति पर न तो चर्चा होती है न ही लेख लिखे जाते हैं ,ऐसे में जब कभी आपको पढता हूँ ,तो इस संक्रमण से जुडी सारी कुंठाएं ख़त्म हो जाती है ,बात समलैंगिकता की हो या बुजुर्गियत कि या फिर कुछ और ,हम जानते हैं कि आपने जो लिखा है खुद से और सिर्फ खुद से सहमत होकर लिखा है |बहुत बहुत बधाई ,आशा है जल्द ही आपको फिर पढूंगा ,संभव हो सके तो प्रकाशित रचना के सन्दर्भ में सूचित करेंगी

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  5. हिंदी पत्रकारिता जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है ,उसमे भीड़ के पीछे भागने का शगल साफ़ नजर आता है ,विचारिक सहमती और असहमति पर न तो चर्चा होती है न ही लेख लिखे जाते हैं ,ऐसे में जब कभी आपको पढता हूँ ,तो इस संक्रमण से जुडी सारी कुंठाएं ख़त्म हो जाती है ,बात समलैंगिकता की हो या बुजुर्गियत कि या फिर कुछ और हम जानते हैं कि आपने जो लिखा है खुद से और सिर्फ खुद से सहमत होकर लिखा है |बहुत बहुत बधाई ,आशा है जल्द ही आपको फिर पढूंगा ,संभव हो सके तो प्रकाशित रचना के सन्दर्भ में सूचित करेंगी

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  6. अपनी बात आपने सशक्त ढ़ंग से प्रस्तुत किया और मेरी सहमति है ऐसे विवारों के प्रति। इसका विरोध हर स्तर पर होना चाहिए।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  7. आपने एक बहुत अच्छा और विचारोत्तेजक आलेख लिखा है.इस आलेख में आपने जो प्रश्न उठाये हैं उनके उत्तरों में आज के उत्तर -आधुनिक हो रहे समाज की कड़वी सच्चाई और घिनौना चेहरा छुपा है.
    हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में कभी कभी बहुत विद्रूपित और अव्यावहारिक बातें देखने मिलती हैं. समलैंगिकता का मसला भी ऐसा ही मसला है. इस फैसले के आने के बाद समाज के जिस "विशेष वर्ग" को राहत पहुंचाने की बात की जा रही थी उसकी प्रतिक्रया तो नहीं मालूम, पर सामान्य रूप से स्कूल कॉलेज के छात्रों में हंसी-मज़ाक, एक दुसरे को छेड़ने और निरर्थक वार्तालाप के विषय के रूप में नया मसाला ज़रूर मिल गया है.
    आपने लिखा की समलैंगिकता एक महामारी के रूप में फैलेगी, पर मुझे लगता है की ये एक महामारी को फैलाने में मददगार होगी. वह महामारी है-ऐड्स. इस फैसले के साथ ऐड्स की आशंकाओं को नज़र-अंदाज़ किया गया है. हमारे देश में गंभीर और रोंगटे खड़े करने वाली समस्याओं के आसान, मासूम से, और घोर अवैज्ञानिक-अव्यावहारिक समाधान सुझाए जाते हैं. पिच्छले कई वर्षों से ऐड्स की रोकथाम के लिए प्रसारित होने वाले सरकारी विज्ञापन कंडोम के विज्ञापन अधिक लगते हैं. स्थिति ये है की स्कूली बच्चे भी ऐड्स की भयावहता से बेखबर होते हुए कंडोम की सुरक्षा से निश्चिंत हैं. नतीजा वही है जो होना चाहिए था- तमाम प्रयासों के बा-वजूद ऐड्स के रोगियों की संख्या में तेज़ी से बढोत्तरी. ऐड्स के विज्ञापन में कंडोम की वकालत करने वाले मूर्खों ने देश की स्वस्थ, जीवंत और संभावनाशील पीढी को किस गर्त में धकेल दिया है-!
    ऐड्स के प्रति जागरूकता लाने के पक्षधर यदि भारतीय संस्कृति की चारित्रिक शुचिता को पढ़-समझ लेते और उसे व्यावहारिक बनाते तो आज हम ऐड्स के भय से मुक्त स्वस्थ समाज में रह रहे होते-!

    और ..........................

    उस पर नीम चढा करेला ये की समलैंगिकता भी अब गैर-कानूनी नहीं ....... यानी विदेशी ३-एक्स फिल्मों और इन्टरनेट से प्राप्त ज्ञान के आधार पर नयी रोमांचकता की तलाश में बीमार समाज के निर्माण की गति को तीव्र करने की सार्थक पहल-!!!!!!!

    समलैंगिकता को भले ही गैर-कानूनी न माना जाए पर ये अ-सामाजिक और अप्राकृतिक तो है ही......... इसे एक बुराई के रूप में ही देखा जाना चाहिए. इसे कितना ही वैधानिक बनाने की कोशिश की जाए पर समय और समाज इसके पक्ष में कभी नहीं होगा.

    आपने एक ज्वलंत विषय उठाया इसके लिए आपका आभार........

    सादर-
    आनंदकृष्ण, जबलपुर
    http://www.hindi-nikash.blogspot.com

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  8. समलैंगिकता कोई नई बात नही है. इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानवता का. विश्व के लगभग सभी देशों मे इसे असामाजिक कॄत्य माना जाता है. कुछ देशों मे समलैंगिकता गैर-कानूनी है और पकङे जाने पर सजा का विधान है. लेकिन सवाल ये नही है कि समलैंगिकता एक बीमारी है या व्यक्तिगत पसन्द, महत्वपूर्ण बात ये है कि दो बालिग कमरे की चार दीवारी के पीछे क्या करते हैं क्या सरकार को उस पर नियंत्रण करने का अधिकार है. सरकार की नजर मे हर नागरिक समान होना चाहिये चाहे उसका धर्म, लिंग, रंग, और व्यक्तिगत विचार कैसे भी हो. सामाजिक और असामाजिक कॄत्यों की परिभाषा का जिम्मा समाज पर छोङ देना चाहिये और सरकार को इसमे कोई हस्तक्षेप नही करना चाहिये.

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  9. कितना बड़ा लेख लिख दाला आपने...
    इस विषय को कुछ महत्व देने की जरूरत है क्या भला...

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