Wednesday, July 8, 2020
पढ़िए एक व्यंग्य
Monday, May 25, 2020
सपने साजन के
Sunday, April 26, 2020
बड़े लोगों की बीमारी
(कोरोना पर दिल्ली की हालिया रिपोर्ट...)
यह तो सब जानते हैं दिल्ली में एक ऐसी आबादी भी बसती है जो पढ़ी-लिखी नही है, और जिनका काम है रोज कमाना और रोज खाना, इनमें आधे लोग ऐसे हैं जिनके पास राशनकार्ड भी नहीं है।
अब बात आती है क्या लॉक डाउन का दिल्ली अच्छी तरह से पालन कर रही है। तो यह सच है डर एक वजह ऐसी है जिसकी वजह से लोग मास्क नहीं है तो कपड़ों से मुँह ढक रहे हैं, अब यह डर कोरोना का हो या पुलिस के डंडों का। लेकिन है डर ही जिसकी वजह से मास्क पहन रहे हैं।
आज हम लोग पहुंचे लिबर्टी सिनेमा के पास बनी एक बस्ती में, यह देवनगर के नाम से जानी जाती है, यहां तकरीबन 300 झुग्गी हैं, किसी में चार तो किसी में 6 लोग रहते हैं। 1500/2000 के करीब लोग हैं यहां। अब बात आती है सरकार के सबको भोजन देने की तो सरकार ने सबको देने के लिए भोजन की व्यवस्था की है, जिसमें एक आदमी के लिए 5 किलो गेहूं, दो किलो दाल का प्रावधान रखा गया है। समस्या यह आ रही है कि 300 में से 180 लोगों के पास ही राशनकार्ड है बाकी लोगों के पास कोई कागज़ नहीं है तो उन्हें भोजन नहीं मिल सकता है। दूसरी बात गेहूं चक्की वाला भी परेशान करता है उसकी भी मजबूरी है एक साथ कितने लोगों का आटा पीस सकेगा।
झुग्गियों के आसपास देखें या सड़कों पर देखें लोग सोये हुए बैठे हुए हैं। कोई खाना बांटने भी जाता है तो टूट पड़ते हैं।
हमें देखते ही सबने मुंह ढक लिया, मैंने समझाया आप लोगों को आपस में मुंह ढक कर दूरी बना कर रहना चाहिए। तब उनमें से एक महिला बोली हमें कुछ नहीं होगा बीबीजी, यह बड़े लोगों की बीमारी है, हम तो एक कमरे में छ: लोग रहते हैं दूरी कैसे बनाएंगे।
सोचने वाली बात है यह कोरोनावायरस का खतरा क्या सिर्फ हम लोगों को ही है? हम लोग दो महीने का राशन खरीद कर खुद को लॉक करके बैठ गए हैं दीन-दुखियों से बेखबर। हमें उन लोगों की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है जो बरसों से हमारे लिए काम करते रहे हैं। हमने प्रधानमंत्री केयर में पैसा जमा करवाया और हमारी ड्यूटी खत्म हुई।
यदि सचमुच कोरोनावायरस भयावह है तो दिल्ली की सरकार को इन झुग्गी में रहने वाले लोगों को निसंक्रमित करना होगा वरना इन्हें संभालना नामुमकिन हो जाएगा।
अब आपको मैं जाने-माने होस्पिटल इरविन लेकर चलती हूं। यहां पहुंचते ही लोगों की भीड़ लग गई, इसमें ऐसे लोग भी थे जो अच्छे घरों के पढ़े-लिखे लोग थे। ऐसे लोग भी थे मजबूरी में किसी मरीज के साथ रुके हुए थे। अधिकतर कपड़ों से सभ्य नज़र आ रहे थे मगर चेहरे पर भूख नज़र आ रही थी। उन लोगों का कहना था कि हमें खाना नहीं मिल रहा है, और जब दूसरे अस्पताल की कैंटीन से लेने जाते हैं वह दो रोटी के 60 रू ले रहा है। उनके चेहरों पर लाचारी साफ नजर आ रही थी।
उसी भीड़ में एक लड़का भी खड़ा था जो कुछ परेशान सा सबको देख रहा था, आखिर उससे भी भूख सहन नहीं हुई और वह मुझे बोला यह खाना मैं खरीदना चाहता हूं, मेरे बहुत मना करने पर भी वह 100 रू का नोट थमा कर खाना लेकर भीतर भाग गया। मतलब की उसके पास पैसा तो था खाना नहीं था।
पुलिस ने खाना खिलाने वालों के लिए भी एरिया निर्धारित किए हुए हैं, सभी एंजियो वालों को कर्फ्यू लैटर लेकर रखना होगा वरना आप खाना भी नहीं खिला सकते हैं।
जगह-जगह पुलिस और आर्मी तैनात थी, और लोग स्कूटर और बाइक पर दो तीन की सवारी में घूम रहे थे। गाडियां चल रही थी। दिन भर दुकानें खुली रहने की वजह से लॉक डाउन में भी लोग बाजारों में घूम रहे थे। पुलिस की नाक के नीचे तरह-तरह के बहाने बना कर लोग घूम रहे थे।
एक गुटखा खाने वाले से जब पूछा कि गुटखा तो बंद हो गया होगा उसने जवाब दिया, मिल रहा है बस पैसे ज्यादा लग रहे हैं। तो यह अंदर की बात है जिस बात का डर था वही हुआ है, कालाबाजारी भी हो रही है क्योंकि लोग नहीं मान रहे हैं।
अब बात आती है सरकार ने भोजन के नाम पर जो करोड़ों रुपए खर्च किए हैं वह कहां जा रहे हैं तो यह एक बहुत बड़ा सच है हमारे देश का। यहां कोई किसी के खिलाफ नहीं बोलता, जो बोलते है उन्हें खाना मिल जाता है तो वह कालाबाजारी होने देते हैं उसे पकड़ कर पीटते नहीं, अपने हक के लिए लड़ते नहीं। सरकार द्वारा भेजी गई मदद गरीब तक पहुंचने में कई लोगों के हाथ से होकर गुजरती है। ये हाथ पहले अपना पेट भरते हैं, फिर भूखी जनता को तरसा तरसा कर खाना देते हैं। इतने दिन में मुझे एक भी चैनल वाला या अखबार वाला नज़र नहीं आया। हां कुछ एनजीओ की गाड़ियां जरूर खाना खिलाने आई थी। और बस्ती के लोग हाथों में पैकेट पकड़े खड़े थे।
अब बात वही आती है कहीं लोग भूखे हैं के चक्कर में सब लोग गरीबों को खाना खिलाने तो नहीं जा रहे हैं।
कहीं मुफ्त खाने की आदत इन्हें सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करने वालों के लिए हथियार तो नहीं बना लेगी।
तो आप यह सोच सकते हैं क्यूंकि ऐसा भी संभव है, हमारे देश में भ्रष्टाचार कभी समाप्त नहीं हो सकता, सरकार हर जगह देखने जा नहीं सकती, संकट काल में हमेशा गरीब ही मरता है।
यदि कोरोनावायरस से संकट की बात करें तो खाना खिलाने वालों को भी डर है, बस्ती हो या अस्पताल लोग पूरी तरह से दूरी बना ही नहीं पाते हैं, बार बार मना करने के बावजूद लाइन नहीं बना पाते, बच्चे तो हाथ पैर पकड़ लटकने लगते हैं। ऐसे में खुद को कैसे बचाया जा सकता है?
बाहर खाना खिलाकर आने के बाद वापस लौटते लोग कितने सुरक्षित हैं कौन जाने। और यदि न खिलाया जाए तो ध्यान दीजिए गली के आवारा कुत्ते और गाय भूख से कैसे बिलबिला रहे हैं। चिड़िया मर रही हैं, तो मनुष्यों की हालत क्या होगी।
अब आप इस बात पर भी ज़रूर ध्यान दें अस्पतालों में नर्स,वार्ड ब्वाय और मरीज़ के संगे संबंधियों को खाना नहीं मिल पा रहा है, झुग्गियों में पहुंचने वाले ज़रा अस्पताल भी पहुंचे और खाना खिलाएं।
हां इस बात का ख्याल भी रखें सबसे ज्यादा बीमार अस्पताल में ही हैं। जहां सबको खाना खिलाते हुए आपको खुद को भी बचाना होगा।
सुनीता शानू
Saturday, April 11, 2020
दिल्ली का दिल हुआ लॉक डाउन
दिल्ली का दिल हुआ लोक डाउन....
कोरोना के कहर ने सम्पूर्ण विश्व में त्राही मचा रखी है, एक बड़ी संख्या में लोग कोरोना से संक्रमित होते जा रहे हैं, वही विदेश से लौटे कुछ भारतियों की वजह से बड़े-बड़े शहरों में भी कोरोना ने अपने डैने फैला लिए हैं तो देश की राजधानी दिल्ली कहाँ बच पाती।
दिल्ली जो एक शहर ही नहीं है, जहाँ दुनिया के हर कोने से आकर लोग बसे हुए हैं। जहाँ हर मज़हब के लोग अपना भाग्य आजमाने चले आते हैं, जीहाँ दोस्तों वही दिल्ली जिसके दिल में हम रहते हैं। वही दिल्ली जिसने हर ज़रूरतमंद को रोटी,कपड़ा,मकान दिया है।
आज वही दिल्ली सहमी-सहमी सी खड़ी है मेरे आगे, और मै देख रही हूँ दिल्ली के दिल पर फ़ंगस लगते हुए, आज फिर दिल्ली की सड़के भूख से रो रही हैं, अस्पतालों में हाहाकार मचा है, यह उजड़ना, बिखरना कोई पहली बार नहीं हुआ है, न जाने कितनी बार दिल्ली के दिल को रौंदा गया, तोड़ा गया, यहाँ की सड़के वीरान हुई। इतिहास गवाह है इस बात का दिल्ली ने अपने दिल पर कितने जख्म सहे हैं, न जाने कितनी बार बिखर कर संवरी है, इसके बावजूद दिल्ली ने बाहर से आने वाले हर शरणार्थी को शरण दी है, दिल से लगाया है, रोजगार दिया है। आज उसी दिल्ली के दिल में लोक डाउन की नौबत आ गई है। ऎसे ही समय के लिए शायर विजेन्द्र शर्मा फ़रमाते हैं...
दिल की चादर तंग है कहाँ पसारे पाँव
चले यार इस शहर से अपने-अपने गाँव॥
सचमुच वह बहुत काली अंधेरी रात थी जब भूख से आतंकित कई गाँव मजबूरी और बेबसी की गठरी उठाए पलायन कर गए। दिल्ली के अमीर घरों ने प्रधानमंत्री फ़ंड में पैसा जमा करवाया और चादर तान ली, यह भी नहीं सोचा कि उस पैसे की रोटी बनने में वक्त लगेगा, और बन भी गई तो कितने दिन लगेंगे भूखे पेट तक पहुंचने में... भूख कब तक बर्दाश्त होगी? कोई तो बताए?
दिल्ली के बहरे कानों ने उस लाउड्स्पीकर की आवाज़ तक नहीं सुनी जो गरीबों की बस्तियों में जाकर उन्हें बोर्डर पर पहुंचने की बोल रहा था, इतनी संगदिल तो नहीं सुनी थी मैने दिल्ली।
यह भी सच है जिन लोगों ने पलायन किया वह सुख के क्षणों के ही साथी थे, कुछ पैसा और रोटी लेकर भी पलायन कर गए। क्योंकि जिन्होने दिल्ली को दिन से अपनाया वह मजदूर एक बहुत बड़ी संख्या में भूखमरी से लड़ रहे हैं, एक बहुत बड़ी संख्या सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और नर्स के रूप में भूखी रहकर भी लोगों को बचा रही है, एक बहुत बड़ी संख्या में आज पुलिस तैनात है जिन्होने अपनी तनख्वाह से भूखे लोगों को भोजन दिया है, यह वही पुलिस है जिन्हें बार-बार इन्हीं लोगों की पत्थरबाज़ी का सामना करना पड़ता है।
चलिए बात करते हैं पलायन की कुछ और वजहों पर भी...
सबसे बड़ा और गलत काम उन उद्योगपतियों ने किया था जिन्होनें बरसों से काम कर रहे मजदूरों को बिना एक महीने की पगार दिये, बिना कोई मदद दिये काम से निकाल दिया था। गलत काम उन मकानमालिकों ने भी किया जिन्होने जरूरत के वक्त मकान में मजदूरों को रख रखा था, और जैसे ही पता चला कि वह किराया नहीं दे पाएंगे मकान खाली करने को बोल दिया। पलायन की वजह वह घरेलू महिलाए भी हैं जो बरसों-बरस कामवालियों के काम पर टिकी हुई थी और जिन्होनें मदद के वक्त पल्ला झड़का लिया। बात तो उन रईस घरानों की भी करनी पड़ेगी जिन्होने लोक डाउन की घबर सुनते ही घर को गोदाम बना लिया और बाज़ार में जरूरी सामान की कमी हो गई। गलती कालाबाज़ारी करने वाले उन व्यापारियों की भी है जो दस रु की चीज को चार गुना कीमत में बेच रहे थे। इन सारे झंझटों से जूझते हुए जब गरीब आदमी के पास पलायन का ही विकल्प आयेगा तो वह क्या करेगा?
दूसरी खास वजह जिसने घाव पर मरहम का काम किया वह मोबाइल समझी गई, देश की एक बहुत बड़ी आबादी आज व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक से जुड़ी हुई है, जिनके घर में रोटी तक नहीं उनके बच्चों के पास भी पुराना टूटा-फूटा मोबाइल मिल जाएगा। और मोबाइल पर हर दूसरा तीसरा आदमी दिनभर चिपका हुआ दिखाई देता है, जो लोग कहीं नहीं आते-जाते। टीवी नहीं देखते न रेडियो सुनते हैं वह बस व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक की अज्ञात खबरों पर भरोसा करते हैं, उन्हें यहाँ-वहाँ फ़ैलाने का काम करते हैं। यहीं व्हाट्स एप्प पर जब सरकार की तरफ़ से गरीब लोगों के लिए खाना देने की खबर सबको मिली, तब ऎसी खबरों ने भी जोर पकड़ लिया कि अब न जाने कितने समय तक लोक डाउन में रहना होगा। इसके बाद एक मैसेज और आया कुछ लोग पैदल ही अपने गाँव लौट रहे हैं क्योंकि शहर की अपेक्षा उन्हें गाँव में रोटी मिल जायेगी,ये वही लोग थे जो रोटी की तलाश में गाँव छोड़ शहर चले आये थे। खैर इसके बाद मैसेज आया गाँव जाने के लिए सरकार ने बसों का इंतजाम कर दिया है। यहाँ तक की बस्तियों तक मुनादी भी करवा दी गई। ऎसा प्रतीत हो रहा था, कि कोई चुपके-चुपके लोकडाउन को पूरी तरह से फ़ेल कर देने पर लगा हुआ था।इसके बाद जो हुआ सबकी आँखें फ़टी रह गई, हजारो की तादात में मजदूर निकल पड़े गाँव की ओर, देखकर महसूस हुआ क्या इतने सारे लोग दिल्ली में बेघर-बेसहारा थे, क्या यह सब सिर्फ़ वोट बैंक बढ़ाने के लिए इकट्ठे किए हुए थे, भीड देख सोशल मीडिया सचमुच दहल गई, घरों में चादर तानकर सोये लोगों की नींद उड़ गई, एक बार लगा कहीं कोरोना मानव बम के रूप में गाँवों की तरफ़ तो नहीं भेजा जा रहा। भीड़ इतनी विकट थी कि उसे रोकने वाली पुलिस भी असहाय हो पिट रही थी।
पलायन की दूसरी वजह टीवी चैनल रहे, जहाँ एंकर सोशल मीडिया से उठाई खबरों को लगातार प्रसारित कर सरकारों को कोस रहे थे, भीड़ को उकसा रहे थे, यदि चैनल के पास सही खबर होती और वह सच का साथ देते तो हो सकता है कि गाँवो के भोले लोग एक दूसरे की परवाह करके दूरी बनाए रखते, कोरोना के डर से अपने लोगों के पास लौटने की सोचते ही नहीं।
यह सच है कि भूख से आदमी पहले मरता है कोरोना की अपेक्षा, लेकिन यह भी सच हमारे देश में जहाँ महापुरूषों ने महीने-महीने अनशन किया है, गाँवों में भी किसान कई बार भूमिगत अनशन पर बैठे हैं, कैसे यकीन करें कि सिर्फ़ रोटी के चक्कर में पलायन किया गया है। यह रोटी की आड़ में राजनैतिक साजिश भी हो सकती है, यह गरीब लोगों को बदनाम करने की साजिश भी लग रही है। सोचिये जरा जो महीनों तक एक वक्त का खाना खाकर भी रहा है क्या लोकडाउन के दो दिन भी नहीं निकाल पाता।
मुझे जहाँ तक लगता है यह भोले-भाले लोगों को गाँव लौट जाने का लालच दिया गया था।
कोरोना के विस्तारण में कौन शामिल है... यह बात तो हर व्यक्ति जान चुका है कि यह आपदा विदेश से आई है। लेकिन यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि इसे फैलाने में सबसे ज्यादा किनका हाथ है। सबसे पहले नंबर पर वह लोग आते हैं जो उन दिनों विदेश से आए थे, जो जानते थे कि विदेश इस महामारी से लड़ रहे हैं इसके बावजूद वह लोग सबसे मिलते-जुलते रहे, इसके बाद वह लोग भी उनमें शामिल हैं जिन्होनें इन लोगों का साथ दिया, एकांत के डर से जाँच तक नहीं करवाई, और इसका खामियाजा संसद तक को भुगतना पड़ा।
विस्तारण में वह लोग भी शामिल हैं जो बीमारी का खुलासा होने के बाद भी पार्टी कर रहे हैं, सोशल गैदरिंग में शामिल हैं, स्थिति की भयावहता को न समझ कर जो लोग बेवजह घूमना-फ़िरना बंद नहीं कर रहे है, और कोरोना के किटाणु एक जगह से दूसरी जगह तक ला रहे हैं। एक वक्त था जब हमारे भारतवर्ष में यदि किसी को कोई बीमारी हो जाती थी वह दूर से ही सबको आगाह कर देता था कि उसके पास न आए। लेकिन आज कुछ लोग ऎसे भी हैं जिन्होने भारतीय परंपराओं को ताक पर रख दिया है, और पूरी तरह से विदेशी संस्कृति अपना ली है, इसमें हाथ मिलाने वाले, बात-बात पर गले मिलने वाले लोग है जो बाहर के जूते चप्पल पहने ही पूरे घर में घूमते रहते हैं यहाँ तक की बिस्तर तक में घुस जाते हैं, बाहर से आते ही हाथ मुँह पैर धोना हमारी पुरानी परंपरा रही है, इसके बिना माँ रोटी नहीं दिया करती थी। आज खाना टेबल पर ही लगा दिया जाता है, खुद ही निकालते जाइए खाते जाइए। इसमें किसने हाथ धोये होंगे, कौन वायरस साथ लेकर चल रहा है, कुछ नही मालूम। बहुत जरूरी है इस वक्त हमें अपनी पुरानी संस्कृति को अपना लेना चाहिये, सबसे दूर से नमस्कार किया जाए।
सम्पूर्ण भारत में जब-जब विपदा आई है यहाँ देवी देवताओं की पूजा शुरू हो जाती है, हवन होने लगते हैं, हर बीमारी की देवी बना दी जाती है, भजन गाए जाते हैं मंदिर बन जाते हैं। लोग झाड़ फ़ूंक कर भोली जनता को लूटना शुरू कर देते हैं। आधे लोग इसी अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं, और बीमार होने पर भी डॉक्टर को न दिखाकर इन पाखंडियों के पास चले जाते हैं।
सबसे बड़ी समस्या है कि हमारे देश में सफ़ाई के प्रति लोग जरा भी सतर्क नहीं है, एक तौलिये से पूरा खानदान शरीर पूछ लेता है, एक रुमाल घर भर में इस्तेमाल हो जाता है, बात-बात पर नाक में उंगली, कान में उंगली और हद तो तब हो जाती है जब मुंह में भी वही उंगली आती-जाती रहती है। सेनेटाइजर जैसी चीजे इस्तेमाल करना तो अमीरी दिखाना है ही दूसरे कई वार ऎसे भी बना दिये हैं इस दिन साबुन नहीं लगाना है, कपड़े नहीं धोना है। हाथ धोये बिना ही खाना खा लेना, रेहड़ी से कुछ भी उठा कर खा लेना। कोरोना के बढ़ने में भी यह बहुत सहायक रहा है।
दिल में ही रहना है... दोस्तों बहुत जरूरत है दिल्ली को आप सबकी मदद की। सद्भावना की सहानुभूति की। इस दिल्ली की शान बनी रहे इसके लिए बहुत से एनजियो ही नहीं आम पब्किल के लोगों ने भी अपने भंडार खोल दिए हैं, आज सबसे जरूरी यही है एक दूसरे का ख्याल रखें, कल की फ़िक्र में जमाखोरी न करें। आज की फ़िक्र में भविष्य को दाव पर न लगाएं, सरकार एक-एक के घर तक नहीं पहुंच सकती है, और फिर यह क्या जरूरी है कि हम हर काम के लिये सरकार की तरफ़ ही देखें, हमारा पहला धर्म है मानवता की रक्षा करना। कल जब दिल्ली फिर से बनेगी, संवरेगी आप अपने दोस्तों से, अपने काम करने वालों से आँख मिला पाएंगे, आपके मुँह तक रोटी पहुंचने से पहले आप कितने लोगों का पेट भर सकते हैं यह आप पर निर्भर करता है हमें दिल्ली के दिल को बचाना है। शायर नवाज़ देवबंदी ने फ़रमाया है...
गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर
धूप रहती है न साया देर तक...।
सोचिए जब देश की आधी आबादी भूख से आधी बीमारियों से खत्म ही हो जाएगी तो हम अपने लिए जोड़कर इस धन का क्या करेंगे? हमें इसके दिल में रहना है तो हमें दिल्ली के दिल को बचाना ही है।
सुनीता शानू
Saturday, March 14, 2020
ये दिल्ली के मेले, कभी कम न होंगे.... -----
दिल्ली डायरी में जब प्रगति मैदान शामिल होने जा रहा था, तब अनायास ही डायरी के पन्नों पर लिखने-पढऩे का सबसे बड़ा मेला नजर आने लगा। इस साल के शुरुआती दिनों में यानी 4 से 12 जनवरी के बीच यहां विश्व पुस्तक मेला यानी वल्र्ड बुक फेयर का आयोजन नजर आया।
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- सुनीता शानू
दिल्ली देश का दिल है तो यहां मेल-मिलाप-मेले तो होंगे ही। दिल्ली में मेलों की रौनकें कल भी थी, आज भी हैं और लग रहा है आने वाले समय में भी यूं ही बनी रहेगी। क्योंकि, दिल्ली दिल्ली कल भी सैलानियों को आकर्षित करने के लिए जगमगाती थी, और आज भी दिल्ली में मेलों की जगमग रहती है। यूं यह कहें तो हरगिज़ गलत नहीं होगा कि दिल्ली हमेशा से व्यापारिक दृष्टि से श्रेष्ठ रही है।
अब बात आती है खरीदारी की। तो मेले में खरीदारी का शौक तो सबको ही रहता है। लेकिन दिल्ली आने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी नजऱ आती है जो सिफऱ् खरीदारी करने के उद्देश्य से ही नहीं आते हैं। वरन अपना सामान बेचने भी आते हैं। हां, यह भी सच है कि दिल्ली ने छोटे-बड़े सभी व्यापारियों को कारोबार दिया है। जो लोग एक बार दिल्ली आकर बस जाते हैं और यहांं से बाहर जाने का नाम भी नहीं लेते हैं। कमोबेश यही वजह है कि दिल्ली को दिल वालों की नगरी भी कहा जाता है।
अब इस दिल वालों की नगरी में आकर भी आप यदि यहां का बाजार नहीं घूम पाए तो हमेशा मलाल ही रहेगा। वैसे खरीदारी का शौक कुछ खास लोगों का तो होता ही है। परन्तु आम आदमी भी खुदरा बाजार देखते ही सुविधानुसार खरीदारी कर लेता है।
इन्हीं बाज़ारों में घूमते लोगों को देखते हुए ही शायद शायर अरशद अली खान ने कहा है,
"खऱीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है।
बना है शौक़-ए-दिल दल्लाल बाज़ार-ए-मोह्ब्बत का।।
हमारा दिल जब किसी चीज पर आ जाता है तो न जेब देखता है न वक्त देखता है। बस खरीदवा कर ही दम लेता है। ऐसे में दिल्ली के इन बाज़ारों की रंगीनियां अपनी ओर खींचती है। बाजारों की बात चली तो आपको बताते चलें। दिल्ली के प्रसिद्ध बाजारों में चांदनी चौक, पालिका बाज़ार, कनॉट प्लेस, बल्ली मारान, दिल्ली हाट, प्रगति मैदान और बेगम सामरु का महल( फ़ुटकर का सामान) शुमार है। हालांकि यह कुछ बानगी भर है, लेकिन यहां आने वालों के लिए खरीददारी की दृष्टि से जरूरत का सब कुछ मिल ही जाता है।
लेकिन आज की हमारी दिल्ली डायरी जिस खास मुकाम पर पहुंचने वाली है, वह स्थान मेलों के लिए जगप्रसिद्ध है। आप सही समझे, वह स्थान दिल्ली का प्रगति मैदान ही है।
आम तौर पर प्रगति मैदान प्रदर्शनकारियों के लिए एक प्रदर्शनी स्थल है। यह एशिया के सर्वोत्तम प्रगति स्थलों में से एक माना जाता है। करीब 149 एकड़ में फैला एक विशाल मैदान, जिसमें 54,685 वर्ग मीटर में फैले 15 विशाल प्रदर्शनी स्थल और राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र, द हॉल ऑफ़ नेशनल, अद्भुत हस्त शिल्प संग्रहालय एवं स्टेट्स पवेलियन, नेहरू पवेलियन एवं डिफैंस पवैलियन को अपने आप में समेटे निसंदेह प्रगति का सूचक तो है की दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ में शुमार होने के काबिल भी है।
प्रगति मैदान में इन सबके अलावा 10000 वर्ग मीटर का खुला क्षेत्र है। जहां भारतीय व्यापार प्रोत्साहन संस्थान समय-समय पर देशी-विदेशी व्यापार मेले आयोजित करता रहता है। ये मेले व्यापारिक एवं ओद्योगिक जगत में बहुत खासे महत्व रखने वाले और लोकप्रिय हैं। इन मेलों से टेक्नोलॉजी आदान-प्रदान के लिए एक प्रभावी माध्यम उपलब्ध होता है। इस प्रकार के मेले जनसम्पर्क का भी प्रमुख केंद्र होते हैं। प्रगति मैदान में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। जिसके लिए यहां दो सभागृह शकुंतलम् एवं फलकनुमा कलाकारों और कद्रदानों के स्वागत के लिए अपनी बाहें फैलाए नजर आते हैं।
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दिल्ली डायरी में जब प्रगति मैदान शामिल होने जा रहा था, तब अनायास ही डायरी के पन्नों पर लिखने-पढऩे का सबसे बड़ा मेला नजर आने लगा। इस साल के शुरुआती दिनों में यानी 4 से 12 जनवरी के बीच यहां विश्व पुस्तक मेला यानी वल्र्ड बुक फेयर का आयोजन नजर आया।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन 1957 में स्थापित एक प्रकाशन विभाग राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) ने इस मेले का आयोजन किया। वैेसे भी नेशनल बुक ट्रस्ट के मुख्य कामों में प्रकाशन, 2) पुस्तक पठन को प्रोत्साहन, विदेशों में भारतीय पुस्तकों को प्रोत्साहन, लेखकों और प्रकाशकों को सहायता, बाल साहित्य को बढावा देना और विभिन्न श्रेणियों के अन्तर्गत हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं एवं ब्रेल लिपि में पुस्तकें प्रकाशित करना है। हर साल लगने वाले यह बुक फेयर एशिया और अफ्रीका का सबसे बड़ा पुस्तक मेला तो ही है। मेला खत्म होते ही पुस्तक प्रकाशकों-प्रेमियों को अगले साल का बेसब्री से इंतजार शुरू हो जाता है।
प्रगति मैदान मैट्रो की ब्लू लाइन से जुड़ा हुआ है। मेट्रो से यहां पहुंचना सुगम है।क्योंकि प्रगति मैदान एक मैट्रो स्टेशन का नाम है। हालांकि इस जनवरी माह से इसका नाम सुप्रीम कोर्ट मैट्रो स्टेशन बदल दिया गया है। अब इसी स्टेशन पर उतर कर प्रगति मैदान पहुंचा जा सकेगा। इस बार मेले में पहुंचने का समय प्रतिदिन 11 बजे से रात 8.00 बजे तक था और प्रवेश टिकिट वयस्कों के लिए 30 रुपए, बच्चों के लिए 20 रुपये रखा गया। स्कूल यूनीफ़ॉर्म में आने वाले बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों और दिव्यागों के लिए प्रवेश निशुल्क था। मेले में प्रवेश सिफऱ् गेट नम्बर 1 तथा गेट नम्बर 10 से ही किया जा सकता है। टिकिट खिडक़ी भी गेट नम्बर 1 व 10 पर ही उपलब्ध थी। भैरों मार्ग प्रगति मैदान पर पार्किंग की व्यवस्था भी है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा गाड़ी की व्यवस्था भी की गई है, जो सभी पुस्तक प्रेमियों को गेट से मेले तक श््राटल बस के रूप में सचालित की गई।
पुस्तक मेले की खासियत और जुनून वरिष्ठ पत्रकार विनोद कुमार गौड़ के शब्दों में सुनिए-‘जो एक बार यहां विजिट कर गया, अगले सालों में उसे यहां आना ही पड़ेगा।’ वे आगे बताते हैं- ‘यह सच है कि पुस्तक मेला साहित्य प्रेमियों का एक ऐसा त्योहार है, जिसकी तैयारी में वर्ष भर लेखक, प्रकाशक के साथ-साथ पाठक भी लगे होते हैं। सभी को साल भर तक इस मेले का इंतजार रहता है। और इंतजार किया जाता है दूर से आने वाले दोस्तों का, पुस्तक मेले में जितनी खुशी पुराने दोस्तों से मिलकर होती है, उतनी ही खुशी अजनबी और नए लोगों से दोस्ती होने पर होती है। ये मेले दोस्तों से मिलने का माध्यम भी रहते हैं।’
इसीलिए तो मीर हसन फऱमाते हैं -
"फिरते हैं हम तो तेरे ही दर पे कुछ
रस्ते से है न काम न बाज़ार से गऱज़।
दरअसल, पुस्तक मेले का मुख्य उद्देश्य लोगों में पुस्तकों के प्रति रुचि पैदा करना है। तथा इसका एक लाभ यह भी है कि पाठकों को एक ही स्थान पर हर विषय की पुस्तकें मिल ही जाती है, वहीं प्रकाशकों को भी अपनी पुस्तकों का प्रदर्शन करने के लिए मंच उपलब्ध हो जाता है। पुस्तक मेलों में होने वाली गोष्ठियों और चर्चाओं से भी पाठकों और नए लेखकों को सीखने को मिलता है।
अब नवीन चौधरी को ही लीजिए। छात्रजीवन, छात्र राजनीति से लेकर जातिवादी राजनीति के दांवपेंचों को समेटे उपन्यास ‘जनता स्टोर’ के लेखक नवीन बुक फेयर के अधिकांश दिनों में मौजूद रहे। उन्होंने अपने पाठकों-सोशल मीडिया के माध्यम से बने मित्रों से गर्मजोशी से मुलाकात की, किताब पर ऑटोग्राफ दिए। उनका कहना था कि लेखकों के लिए मार्केटिंग का अवसर तो है ही, साथ ही अपने पाठकों से रूबरू मिलने का मौका भी। उन्होंने बुक फेयर में आए अपने मित्रों, पाठकों को निराश नहीं किया और भरपूर ऊर्जा से मिले, सेल्फी ली।
पुस्तक मेले में भूगोल, इतिहास,विज्ञान,साहित्य,यात्रा,भाषा, संस्मरण, लोककथाएं, मनोरंजन, स्वास्थय, सिनेमा, धर्म आदि विषयों पर पुस्तकें मिल जाती हैं। नए लेखकों की किताबों का जब विमोचन व किताब पर चर्चा होती है तो वह भी चर्चा में आते हैं, तथा किताबों का प्रचार भी होता है। नि: संदेह पुस्तकें ही हमारी सबसे अच्छी मित्र होती हैं। जो हमारा मार्ग प्रशस्त करती हैं और हमें मार्गदर्शन देती हैं। पुस्तकों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। वेद, पुराण, उपनिषद,गीता,रामायण का अध्ययन करके हमें प्राचीन संस्कृति का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही उन महान लोगों के जीवन चरित्र को सालों साल सहेज कर रखना पुस्तकों के माध्यम से ही हो पाया है।
इस साल 4 जनवरी 2020 को प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का उद्घाटन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के ने किया। इस बार मेले की थीम ‘गांधी लेखकों के लेखक थी। इस थीम को ध्यान में रखकर एक विशेष मंडप भी पुस्तक मेले में लगाया गया, जिसमें गांधी जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को लेकर अलग-अलग भाषाओं में 500 से अधिक किताबों की प्रदर्शनी की गई। पुस्तक मेले में 600 से ज्यादा प्रकाशकों ने 1300 स्टालों के जरिए पुस्तकों का प्रदर्शन किया।
लेखक मंच भी पुस्तकों के विमोचनों और लेखकों से बातचीत का एक केंद्र नजर आ रहा था। बाहर से आने वालों के लिए तथा दिन भर मेले में रहने वालों के लिए, मेले में खाने पीने सम्बंधी सुविधाएं भी रखी गई है, ताकि दिन भर मेले में घूमने पर आप कुछ देर सुस्ता कर चाय कॉफ़ी भी पी सकते हैं।
चारों तरफ़ किताबें ही किताबें, और बड़े-बड़े झोले उठाये पाठक वर्ग नजऱ आ रहा था। कुछ प्रकाशकों ने स्टॉल के कोने में लेखकों के बैठने तथा लोकार्पण व चर्चा के लिए स्थान बना रखा था। फूलों की खुशबू और मिठाई के डिब्बों के साथ जैसे ही किसी पुस्तक का लोकार्पण होता, सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती। तालियों की गडग़ड़ाहट के साथ ही वरिष्ठ लेखकों व प्रशंसकों द्वारा पुस्तक पर विचार व्यक्त करते नजर आए।
मेले में वरिष्ठ लेखकों की एक अपनी ही जमात दिखाई देती है। मेले में ऐसे वरिष्ठ लेखक भी नजऱ आ जाते हैं जिनके दर्शन भी दुर्लभ होते हैं या जो चलने फिरने में असमर्थ होते हैं। यहां आने वाले लेखक तथा पाठक जरूरी नहीं किताब खरीदने या विमोचन करने ही आते हैं। पुस्तक मेला सच पूछिए तो वर्षों से बिछड़े दोस्तों के मिलने का माध्यम भी होता है। चारों तरफ़ एक दूसरे के चेहरे देखते लेखक पाठक इस तरह घूम रहे होते हैं, जैसे कुंभ के मेले में किसी अपने की तलाश में हों।
इन सबके बीच एक और खतरे की तरफ़ भी ध्यान गया।प्रगति मैदान में प्रगति की ओर बढ़ते इन नए लेखको के कदम अनायास ही एक ऐसी दिशा की ओर उठ रहे हैं, जहां से अगर निराशा मिली तो उनकी भावनात्मक कविता के बिगड़ जाने का खतरा रहता है। एक कवि मित्र अपने सभी मित्रों से एक ही बात कह रही थी, देखिए-कैसे सौभाग्य की बात है, आज आप आए और आज ही मेरी पुस्तक मेले में आई है। तमाम दोस्त अपनी दोस्त का मुस्कुराता चेहरा देखते और तुरंत उनका हाथ अपनी जेब की ओर बढ़ जाता। और मिल जाती लेखिका की हस्ताक्षरित एक कॉपी। कौन पागल होगा जो अपने दोस्त की क्लॉज अप सी मुस्कुराहट को खोना चाहेगा। तमाम नए लेखक जो अपने किताब रूपी सपने को हाट बाज़ार में सब्जी-भाजी की तरह बेचने को आतुर थे। अपने इष्ट मित्रों को हांक भी लगा रहे थे।
अब यह सचमुच सोचने वाली ही बात है क्या हमें प्रगति मैदान का ये मेला प्रगति की ओर ही ले जा रहा है। जहां अंधाधुंध दौड़ते जा रहे हैं अपनी भावनाओं की किताब पर कल्पनाओं की स्याही से उकेरे कुछ स्वप्न दोस्तों में बेचने।
आखिर में एक बात और। मेले में एक दुनिया सपने बेच रही है, फुटपाथ पर भी... जहां तमाम बड़े छोटे लेखकों की किताबे उपलब्ध है। वहीं पर प्रगति की राह में आगे बढ़ाता एक बोर्ड लगा है किताबें सौ रुपये किलो। सचमुच यह भी सोचनीय है।
Wednesday, February 5, 2020
कथा "मीराँबाई पर विशेष"
कभी-कभी कुछ चीज़े विशेष होती हैं, और आपसे लिखवाकर ही दम लेती हैं, ज़िक्र होना भी चाहिए, किसी भी रचना को लिखने के बाद, या पुस्तक के प्रकाशन के बाद उस पर पाठक का हक़ हो जाता है, अतः उसी पाठकीय धर्म को निभाते हुए मै आपको एक ऎसे विशेषांक से रु-ब-रु करवाने जा रही हूँ जिसका सम्पादन करना आसान तो कतई नहीं था, अपितु नए विवादों को खड़ा भी कर सकता था, विशेषांक को पढ़कर आप संपादक की सजगता और कार्यकुशलता का अंदाजा लगा सकते हैं।
तो मै आपको बताना चाहूँगी कि आज मैने कथा पत्रिका का मीराँबाई विशेषांक पढा, यह मार्कण्डेय जी के देहावसान के बाद वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ था, इस अंक का सम्पादन डॉ अनुज के द्वारा हुआ था।
यदि आप इस अंक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँ बाई पर लिखा गया यह एक दुर्लभ अंक हैं इसमें 30 लेखकों के लेख भी शामिल है, जो मैं धीरे-धीरे पढूंगी। अभी मैंने सबसे पहले सम्पादकीय और यात्रा संस्मरण पढ़ा। जिससे यह पता चला कि इस अंक को निकालने के लिए अनुज को कितनी सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। डॉ अनुज ने मीराँबाई अंक को निकालने के लिए खुद यात्राएं की, उन यात्राओं में मीराँबाई से संबंधित हर सामग्री एकत्र की, लोगों से मुलाक़ातें की, लेखक ने मीराँबाई पर लिखने से पहले जिस तरह से दर-दर भटककर मीराँ को समझने की कोशिश की है, मीराँ की हर पीड़ा को आत्मसात किया है उससे इस अंक की गुणवत्ता का सीधे-सीधे पता लगता है।
इंटरनेट के समय में जबकि सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है, कितने संपादक हैं ऐसे जो किसी भी पत्रिका को निकालने के लिए पूरी तरह ईमानदार रहते हैं, यह सच है कोई भी पत्रिका हो या अखबार उसकी गुणवत्ता का पता संपादक की ईमानदारी पर निर्भर करता है। यदि पुराने तथ्यों के आधार पर मीराँबाई विशेषांक निकाला जाता तो मुझे नहीं लगता कि यह इतना विशेष बन पाता।
लेखक ने यात्रा संस्मरण में मीराँबाई के जन्मस्थल से लेकर अंतिम पड़ाव तक तथ्यों की खोज की। अब तक ना जाने कितने लोग मीराँबाई को भक्ति काल की एक कवयित्री ही मानते रहे होंगे। लेकिन आप इस विशेषांक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँबाई एक कवयित्री ही नहीं एक समाज सुधारक, एक विद्रोही स्वर थी। वह जानती थी कि सीधे-सीधे किसी भी सामाजिक प्रथा का विरोध करना मुश्किल होगा, अशिक्षित व धर्मांध जनता ऊंच-नीच के फेर से निकल नहीं पाएगी, सबको एक ही जगह एकत्र करने का एक मात्र तरीका कृष्ण भक्ति ही थी। अतः मीराँबाई ने बहुत सोच समझ कर भक्ति मार्ग को चुना था।
डॉ अनुज ने अपनी बात में पाठकों के सामने कई सवाल रख छोड़े हैं, यदि मीरा बस एक भक्त ही होती तो उसे राजमहल छोड़ना क्यूं पड़ता, मीरा को मारना तो बहुत आसान होता, तो क्यों सांप या ज़हर के द्वारा खत्म करने की साज़िश की गई।
आपने यह भी सुना होगा कि मीराँ अंत में कृष्ण में लीन हो गई थी। लेख में इस बात को भी पूरी तरह से नकारते हुए लिखा है कि मीराँ की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबराकर ही सत्ता ने उनकी हत्या करवाई होगी, और उनका शरीर भी गायब कर ऐसी कहानी बना दी गई होगी, जिससे धर्मभीरू जनता में राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह न भड़के।
यह अंक सचमुच पाठक को सोचने के लिए विवश कर देता है, भाषा की सरलता पठनीयता को बनाए रखती है और अंत तक मीराँबाई को जानने समझने की उत्सुकता बनी रहती है।
मीराँबाई विशेषांक आपको भी पढ़ना चाहिए और मीराँ के जीवनकाल के पन्नों को एक बार फिर पलटना और समझना चाहिए। ताकि मीराँबाई सिर्फ पदों और भजनों में न रह जाए, समाज के लिए दिया गया उनका बलिदान आने वाली पीढ़ियां भी जरूर समझ पाएं। इस विशेषांक के लिए सम्पादक को बहुत-बहुत बधाई। आशा है इस तरह की सामग्री को किताब के रूप में रखा जाए ताकि पाठ्यक्रम में भी उपयोग हो और आने वाली पीढ़ी को सच्चाई से अवगत कराया जा सके।
लिखना अभी और भी है बाकि फिर कभी...
सुनीता शानू
Sunday, December 1, 2019
दोस्ती जब भी कीजिए...
दोस्ती जब भी किसी से की जाए, पहले जांच परख ली जाए, जांच लिया जाए कि आपने जिससे दोस्ती की है उसे आप पर भरोसा है भी कि नहीं, यह भी देख लिया जाए कि वह आपकी निस्वार्थ दोस्ती को आपकी मतलबपरस्ती तो नहीं मान बैठेगा, आपको जानना पड़ेगा आपके दोस्त के दोस्त कैसे हैं, इंसान किसी की न सुनता हो मगर हर वक्त कान के पास आने वाली आवाजें दिमाग में घर बना लिया करती हैं।
आपको देखना होगा मौकापरस्त दोस्तो की दोस्त को पहचान है भी की नहीं ? और कहीं वह कान का कच्चा हुआ तो ऐसे में दोस्ती कभी भी टूट सकती है, यदि आप सचमुच किसी को दोस्त मानते हैं, और उसका हित चाहते हैं, तो चुपचाप ऐसे लोगों से किनारा कर लेना चाहिए, दोस्ती हमेशा एक दिल, एक दिमाग़ और एक ही सोच वाले लोगों के साथ निभ पाती है...
"A best friend is that who knows all about you and still loves you."
दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
Tuesday, September 10, 2019
दिल्ली वाले दिल हार आए... उज्जैन यात्रा
सुनीता शानू
Saturday, August 11, 2018
कोमल बचपन पर कठोर होती दुनिया...

Tuesday, August 22, 2017
हरिद्वार ऋषिकेश यात्रा एक एड्वेंचर...
सुबह के पाँच बजे होटल पहुंच कर सामान रखा और निकल पड़े गंगा स्नान के लिये... गंगा का पानी एकदम रेतीला हो गया था, लेकिन स्नान करने का लोभ कुछ भी नही देख पाया, और सब कूद गये हर-हर गंगे का जयघोष करते हुये, गंगा स्नान ने सफ़र की सारी थकान खत्म कर दी थी, हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी में ही हमने घूमने का प्लॉन बना डाला, मुझे नहीं लगता कि घुमक्कड़ियों के लिये बरसात कोई रूकावट बन पाती है, हाँ ग्रुप साथ होने से बार-बार रुकना भी पड़ा। पहले दिन हरिद्वार में ही सप्तऋषि घाट , भारत माता मंदिर,वैष्णव माता मंदिर,
दूसरे दिन की सुबह फिर गंगा घाट पर नहाने पहुंच गये, और उसके बाद मनसा माता के दर्शन के लिये लम्बी कतार में लग गये|
उड़न खटोले के लिये भी कतार थी, बाहर से यह कतार जितनी अनुशासन में लग रही थी, भीतर जाते ही गाय-भैंसों का रेला सा बन गई थी, न बच्चों का ख्याल था न बूढ़ों का, धक्का-मुक्की के बीच माता का चेहरा दूर तक नजर नहीं आ रहा था, हाँ द्वार पर एक पंडित प्रसाद चढ़ाने के साथ हर भक्त की पीठ पर एक थाप जरूर लगाता जा रहा था। देखकर बहुत ही अज़ीब लगा जब वह उसी तेज़ी से किसी बुजुर्ग की पीठ पर भी थाप लगा देता था, मै जल्दी ही वहाँ से निकल जाना चाहती थी। जल्दी ही हम ऋषिकेश के लिये रवाना हो गये।
यूँ तो ऋषिकेश का रास्ता सीधा सा है लेकिन हमने चीला जंगल से जाने का प्लॉन बनाया, करीब बीस मिनिट में हम राजाजी नेशनल पार्क पहुंच गये, कुछ फोटो ग्राफ़ी भी की...इसके बाद चीला डैम ऋषिकेश मार्ग द्वारा ही आगे बढ चले, यूँ तो यह मार्ग दूसरे मार्ग से ज्यादा दूरी तय करता है लेकिन खूबसूरत नजारों को देखते हुये और साथ बहती गंगा नदी को देखते हुये दिल करता था ये दूरी खत्म ही न हो और ये मनोरम दृश्य आँखों से ओँझल न हो जायें... आधे घंटे के अन्दर-अन्दर ही हम चीला डैम पहुंच गये,और वहाँ से पहुंचे लक्ष्मण झूला, जिसे पार करते ही नजर आया फोर्टीन फ्लोरी टैम्पल जिसे त्रियम्बकेश्वर मन्दिर भी कहते हैं यहीं पर त्रिवेणी घाट भी है, लक्षमण झूला से आगे बढे तो परमार्थ आश्रम पहुंच गये, जिसे देख कर वहाँ से लौटने का मन ही नही कर रहा था, लेकिन पटना वॉटर फ़ाल को जानने की उत्सुकता इतनी थी कि जल्दी से वहाँ पहुंच जाना चाहते थे।
नीलकंठ मार्ग से होते हुये हम पटना गाँव की ओर चले, तब तक शाम हो चली थी, पटना वॉटर फ़ॉल की दुर्गम चढ़ाई थी जो लगभग दो किलोमीटर थी, चिकने पत्थर बार-बार रेत से फ़िसलता पैर यूँ लगता था कि हमें लौट जाना चाहिये, लेकिन एक मन जो हार नहीं मान रहा था, आखिरकार हम चढते चले गये, सड़क से झरने की दूरी तकरीबन 1.5 किलोमीटर थी, ऊपर पहुंचकर जो दृश्य देखा तो देखते ही रह गये, झरने के पानी में नहाते-नहाते समय कैसे बीता खयाल ही नहीं रहा, अचानक कुछ-कुछ अँधेरा होने की आशंका हुई और ग्रुप के लोगों ने वापसी के लिये चलना शुरू किया, अंत में मै और मेरे कुछ सहयोगी ही बचे थे, अंधेरा पूरे चरम पर था, कारण की वो अमावस्या की रात थी, हमने अपने-अपने मोबाइल की टॉर्च जलाई और एक दूसरे को आवाज लगाते हुये उतरने लगे, उतरते हुये अहसास हुआ कि पहाड़ से उतरना अधिक जोखिम का कार्य है, कई बार पत्थर चुभे, पाँव फ़िसला, एक तरफ़ खाई तो दूसरी तरफ़ पत्थरों पर जमी काई, ऎसे दुर्गम स्थान से होते हुये, भोले शंकर को पुकारते-पुकारते हमने पटना वॉटर फ़ॉल का ट्रैक पार कर ही लिया।
अब दिल्ली की ओर रवानगी शुरू हुई तो रात ग्यारह बजे के लगभग खाना खाने हम एक होटल पर रुके, और आँख जब खुली तो हमारी गाड़ी दिल्ली की सड़क पर दौड़ रही थी।
मुझे लगता है मेरा हाल पढ़कर आप भी जाना चाहेंगे हम घुमक्कडियों के साथ तो सबसे पहले चलने का हौसला पैदा करें और निकल लें,... हरिद्वार ऋषिकेश सिर्फ़ धार्मिक स्थल ही नही है एक रोमाचंक पर्यटक स्थल है जहाँ बार-बार जाने का मन करेगा।
सुनीता शानू