राजस्थान डायरी में पढिये कोरोना पर एक विशेष रिपोर्ट
दिल्ली का दिल हुआ लोक डाउन....
कोरोना के कहर ने सम्पूर्ण विश्व में त्राही मचा रखी है, एक बड़ी संख्या में लोग कोरोना से संक्रमित होते जा रहे हैं, वही विदेश से लौटे कुछ भारतियों की वजह से बड़े-बड़े शहरों में भी कोरोना ने अपने डैने फैला लिए हैं तो देश की राजधानी दिल्ली कहाँ बच पाती।
दिल्ली जो एक शहर ही नहीं है, जहाँ दुनिया के हर कोने से आकर लोग बसे हुए हैं। जहाँ हर मज़हब के लोग अपना भाग्य आजमाने चले आते हैं, जीहाँ दोस्तों वही दिल्ली जिसके दिल में हम रहते हैं। वही दिल्ली जिसने हर ज़रूरतमंद को रोटी,कपड़ा,मकान दिया है।
आज वही दिल्ली सहमी-सहमी सी खड़ी है मेरे आगे, और मै देख रही हूँ दिल्ली के दिल पर फ़ंगस लगते हुए, आज फिर दिल्ली की सड़के भूख से रो रही हैं, अस्पतालों में हाहाकार मचा है, यह उजड़ना, बिखरना कोई पहली बार नहीं हुआ है, न जाने कितनी बार दिल्ली के दिल को रौंदा गया, तोड़ा गया, यहाँ की सड़के वीरान हुई। इतिहास गवाह है इस बात का दिल्ली ने अपने दिल पर कितने जख्म सहे हैं, न जाने कितनी बार बिखर कर संवरी है, इसके बावजूद दिल्ली ने बाहर से आने वाले हर शरणार्थी को शरण दी है, दिल से लगाया है, रोजगार दिया है। आज उसी दिल्ली के दिल में लोक डाउन की नौबत आ गई है। ऎसे ही समय के लिए शायर विजेन्द्र शर्मा फ़रमाते हैं...
दिल की चादर तंग है कहाँ पसारे पाँव
चले यार इस शहर से अपने-अपने गाँव॥
सचमुच वह बहुत काली अंधेरी रात थी जब भूख से आतंकित कई गाँव मजबूरी और बेबसी की गठरी उठाए पलायन कर गए। दिल्ली के अमीर घरों ने प्रधानमंत्री फ़ंड में पैसा जमा करवाया और चादर तान ली, यह भी नहीं सोचा कि उस पैसे की रोटी बनने में वक्त लगेगा, और बन भी गई तो कितने दिन लगेंगे भूखे पेट तक पहुंचने में... भूख कब तक बर्दाश्त होगी? कोई तो बताए?
दिल्ली के बहरे कानों ने उस लाउड्स्पीकर की आवाज़ तक नहीं सुनी जो गरीबों की बस्तियों में जाकर उन्हें बोर्डर पर पहुंचने की बोल रहा था, इतनी संगदिल तो नहीं सुनी थी मैने दिल्ली।
यह भी सच है जिन लोगों ने पलायन किया वह सुख के क्षणों के ही साथी थे, कुछ पैसा और रोटी लेकर भी पलायन कर गए। क्योंकि जिन्होने दिल्ली को दिन से अपनाया वह मजदूर एक बहुत बड़ी संख्या में भूखमरी से लड़ रहे हैं, एक बहुत बड़ी संख्या सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और नर्स के रूप में भूखी रहकर भी लोगों को बचा रही है, एक बहुत बड़ी संख्या में आज पुलिस तैनात है जिन्होने अपनी तनख्वाह से भूखे लोगों को भोजन दिया है, यह वही पुलिस है जिन्हें बार-बार इन्हीं लोगों की पत्थरबाज़ी का सामना करना पड़ता है।
चलिए बात करते हैं पलायन की कुछ और वजहों पर भी...
सबसे बड़ा और गलत काम उन उद्योगपतियों ने किया था जिन्होनें बरसों से काम कर रहे मजदूरों को बिना एक महीने की पगार दिये, बिना कोई मदद दिये काम से निकाल दिया था। गलत काम उन मकानमालिकों ने भी किया जिन्होने जरूरत के वक्त मकान में मजदूरों को रख रखा था, और जैसे ही पता चला कि वह किराया नहीं दे पाएंगे मकान खाली करने को बोल दिया। पलायन की वजह वह घरेलू महिलाए भी हैं जो बरसों-बरस कामवालियों के काम पर टिकी हुई थी और जिन्होनें मदद के वक्त पल्ला झड़का लिया। बात तो उन रईस घरानों की भी करनी पड़ेगी जिन्होने लोक डाउन की घबर सुनते ही घर को गोदाम बना लिया और बाज़ार में जरूरी सामान की कमी हो गई। गलती कालाबाज़ारी करने वाले उन व्यापारियों की भी है जो दस रु की चीज को चार गुना कीमत में बेच रहे थे। इन सारे झंझटों से जूझते हुए जब गरीब आदमी के पास पलायन का ही विकल्प आयेगा तो वह क्या करेगा?
दूसरी खास वजह जिसने घाव पर मरहम का काम किया वह मोबाइल समझी गई, देश की एक बहुत बड़ी आबादी आज व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक से जुड़ी हुई है, जिनके घर में रोटी तक नहीं उनके बच्चों के पास भी पुराना टूटा-फूटा मोबाइल मिल जाएगा। और मोबाइल पर हर दूसरा तीसरा आदमी दिनभर चिपका हुआ दिखाई देता है, जो लोग कहीं नहीं आते-जाते। टीवी नहीं देखते न रेडियो सुनते हैं वह बस व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक की अज्ञात खबरों पर भरोसा करते हैं, उन्हें यहाँ-वहाँ फ़ैलाने का काम करते हैं। यहीं व्हाट्स एप्प पर जब सरकार की तरफ़ से गरीब लोगों के लिए खाना देने की खबर सबको मिली, तब ऎसी खबरों ने भी जोर पकड़ लिया कि अब न जाने कितने समय तक लोक डाउन में रहना होगा। इसके बाद एक मैसेज और आया कुछ लोग पैदल ही अपने गाँव लौट रहे हैं क्योंकि शहर की अपेक्षा उन्हें गाँव में रोटी मिल जायेगी,ये वही लोग थे जो रोटी की तलाश में गाँव छोड़ शहर चले आये थे। खैर इसके बाद मैसेज आया गाँव जाने के लिए सरकार ने बसों का इंतजाम कर दिया है। यहाँ तक की बस्तियों तक मुनादी भी करवा दी गई। ऎसा प्रतीत हो रहा था, कि कोई चुपके-चुपके लोकडाउन को पूरी तरह से फ़ेल कर देने पर लगा हुआ था।इसके बाद जो हुआ सबकी आँखें फ़टी रह गई, हजारो की तादात में मजदूर निकल पड़े गाँव की ओर, देखकर महसूस हुआ क्या इतने सारे लोग दिल्ली में बेघर-बेसहारा थे, क्या यह सब सिर्फ़ वोट बैंक बढ़ाने के लिए इकट्ठे किए हुए थे, भीड देख सोशल मीडिया सचमुच दहल गई, घरों में चादर तानकर सोये लोगों की नींद उड़ गई, एक बार लगा कहीं कोरोना मानव बम के रूप में गाँवों की तरफ़ तो नहीं भेजा जा रहा। भीड़ इतनी विकट थी कि उसे रोकने वाली पुलिस भी असहाय हो पिट रही थी।
पलायन की दूसरी वजह टीवी चैनल रहे, जहाँ एंकर सोशल मीडिया से उठाई खबरों को लगातार प्रसारित कर सरकारों को कोस रहे थे, भीड़ को उकसा रहे थे, यदि चैनल के पास सही खबर होती और वह सच का साथ देते तो हो सकता है कि गाँवो के भोले लोग एक दूसरे की परवाह करके दूरी बनाए रखते, कोरोना के डर से अपने लोगों के पास लौटने की सोचते ही नहीं।
यह सच है कि भूख से आदमी पहले मरता है कोरोना की अपेक्षा, लेकिन यह भी सच हमारे देश में जहाँ महापुरूषों ने महीने-महीने अनशन किया है, गाँवों में भी किसान कई बार भूमिगत अनशन पर बैठे हैं, कैसे यकीन करें कि सिर्फ़ रोटी के चक्कर में पलायन किया गया है। यह रोटी की आड़ में राजनैतिक साजिश भी हो सकती है, यह गरीब लोगों को बदनाम करने की साजिश भी लग रही है। सोचिये जरा जो महीनों तक एक वक्त का खाना खाकर भी रहा है क्या लोकडाउन के दो दिन भी नहीं निकाल पाता।
मुझे जहाँ तक लगता है यह भोले-भाले लोगों को गाँव लौट जाने का लालच दिया गया था।
कोरोना के विस्तारण में कौन शामिल है... यह बात तो हर व्यक्ति जान चुका है कि यह आपदा विदेश से आई है। लेकिन यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि इसे फैलाने में सबसे ज्यादा किनका हाथ है। सबसे पहले नंबर पर वह लोग आते हैं जो उन दिनों विदेश से आए थे, जो जानते थे कि विदेश इस महामारी से लड़ रहे हैं इसके बावजूद वह लोग सबसे मिलते-जुलते रहे, इसके बाद वह लोग भी उनमें शामिल हैं जिन्होनें इन लोगों का साथ दिया, एकांत के डर से जाँच तक नहीं करवाई, और इसका खामियाजा संसद तक को भुगतना पड़ा।
विस्तारण में वह लोग भी शामिल हैं जो बीमारी का खुलासा होने के बाद भी पार्टी कर रहे हैं, सोशल गैदरिंग में शामिल हैं, स्थिति की भयावहता को न समझ कर जो लोग बेवजह घूमना-फ़िरना बंद नहीं कर रहे है, और कोरोना के किटाणु एक जगह से दूसरी जगह तक ला रहे हैं। एक वक्त था जब हमारे भारतवर्ष में यदि किसी को कोई बीमारी हो जाती थी वह दूर से ही सबको आगाह कर देता था कि उसके पास न आए। लेकिन आज कुछ लोग ऎसे भी हैं जिन्होने भारतीय परंपराओं को ताक पर रख दिया है, और पूरी तरह से विदेशी संस्कृति अपना ली है, इसमें हाथ मिलाने वाले, बात-बात पर गले मिलने वाले लोग है जो बाहर के जूते चप्पल पहने ही पूरे घर में घूमते रहते हैं यहाँ तक की बिस्तर तक में घुस जाते हैं, बाहर से आते ही हाथ मुँह पैर धोना हमारी पुरानी परंपरा रही है, इसके बिना माँ रोटी नहीं दिया करती थी। आज खाना टेबल पर ही लगा दिया जाता है, खुद ही निकालते जाइए खाते जाइए। इसमें किसने हाथ धोये होंगे, कौन वायरस साथ लेकर चल रहा है, कुछ नही मालूम। बहुत जरूरी है इस वक्त हमें अपनी पुरानी संस्कृति को अपना लेना चाहिये, सबसे दूर से नमस्कार किया जाए।
सम्पूर्ण भारत में जब-जब विपदा आई है यहाँ देवी देवताओं की पूजा शुरू हो जाती है, हवन होने लगते हैं, हर बीमारी की देवी बना दी जाती है, भजन गाए जाते हैं मंदिर बन जाते हैं। लोग झाड़ फ़ूंक कर भोली जनता को लूटना शुरू कर देते हैं। आधे लोग इसी अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं, और बीमार होने पर भी डॉक्टर को न दिखाकर इन पाखंडियों के पास चले जाते हैं।
सबसे बड़ी समस्या है कि हमारे देश में सफ़ाई के प्रति लोग जरा भी सतर्क नहीं है, एक तौलिये से पूरा खानदान शरीर पूछ लेता है, एक रुमाल घर भर में इस्तेमाल हो जाता है, बात-बात पर नाक में उंगली, कान में उंगली और हद तो तब हो जाती है जब मुंह में भी वही उंगली आती-जाती रहती है। सेनेटाइजर जैसी चीजे इस्तेमाल करना तो अमीरी दिखाना है ही दूसरे कई वार ऎसे भी बना दिये हैं इस दिन साबुन नहीं लगाना है, कपड़े नहीं धोना है। हाथ धोये बिना ही खाना खा लेना, रेहड़ी से कुछ भी उठा कर खा लेना। कोरोना के बढ़ने में भी यह बहुत सहायक रहा है।
दिल में ही रहना है... दोस्तों बहुत जरूरत है दिल्ली को आप सबकी मदद की। सद्भावना की सहानुभूति की। इस दिल्ली की शान बनी रहे इसके लिए बहुत से एनजियो ही नहीं आम पब्किल के लोगों ने भी अपने भंडार खोल दिए हैं, आज सबसे जरूरी यही है एक दूसरे का ख्याल रखें, कल की फ़िक्र में जमाखोरी न करें। आज की फ़िक्र में भविष्य को दाव पर न लगाएं, सरकार एक-एक के घर तक नहीं पहुंच सकती है, और फिर यह क्या जरूरी है कि हम हर काम के लिये सरकार की तरफ़ ही देखें, हमारा पहला धर्म है मानवता की रक्षा करना। कल जब दिल्ली फिर से बनेगी, संवरेगी आप अपने दोस्तों से, अपने काम करने वालों से आँख मिला पाएंगे, आपके मुँह तक रोटी पहुंचने से पहले आप कितने लोगों का पेट भर सकते हैं यह आप पर निर्भर करता है हमें दिल्ली के दिल को बचाना है। शायर नवाज़ देवबंदी ने फ़रमाया है...
गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर
धूप रहती है न साया देर तक...।
सोचिए जब देश की आधी आबादी भूख से आधी बीमारियों से खत्म ही हो जाएगी तो हम अपने लिए जोड़कर इस धन का क्या करेंगे? हमें इसके दिल में रहना है तो हमें दिल्ली के दिल को बचाना ही है।
सुनीता शानू
बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteमहामारी के दौर में दिल्ली के दर्द की मार्मिकता को समझते हुए दिल्ली में रहने वाले प्रवासी कामगारों की समस्या का बहुत प्रभावशाली व्याख्या...
ReplyDeleteलेख के माध्यम से बिमारी की गंभीरता को समझते हुए उससे फैलने के कारण एवं बचाव के उपायों के साथ ही साथ आपने इसके सामाजिक दुष्प्रभावों पर भी पर्याप्त प्रकाश डालने का सफल प्रयास किया है । साथ ही साथ अपने लेख के माध्यम से समाज की भूमिका का भी वर्णन किया है जो समाज में अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए प्रेरित किया है ।
आपके लेख से प्रेरणा लेकर मैंने अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने का एक छोटा सा प्रयास किया है जिसका उल्लेख करना यहां उचित नहीं है ... संक्षेप में एक तत्कालीन स्वास्थ्य एवं सामाजिक समस्या पर समुचित प्रकाश डालने के लिए निश्चित ही आप शुभकामनाओं के पात्र हैं..
बहुत ही शानदार लिखा आपने
ReplyDeleteअत्यंत समसामयिक एवं विचारोत्तेजक आलेख। क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ इसपर बहस अवश्य होनी चाहिए, पर अभी समय उपयुक्त नहीं है। आज तो आवश्यकता एक साथ संगठित होकर इस महामारी को परास्त करने की है। सब रहेंगे तो देश रहेगा इसलिये शपथ लें "We Can, We Will-हम जीतेंगे"
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
जयहिंद जय भारत
प्रवीण त्रिपाठी🇮🇳🇮🇳
बहुत सार्थक आलेख ।
ReplyDeleteबिलकुल सटीक और सामयिक आलेख। ताज़ा सूरतेहाल जिससे देश गुजर रहा है और जिस जहालत में जनता जी रही है,उसका बेबाक विश्लेषण किया है आपने। साथ में लाखों की भीड़ जो अचानक राजधानी की सीमा पर उमड़ पड़ी,उसका भी विशेष उल्लेख किया है। आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteरणविजय राव
ReplyDeleteसार्थक आलेख
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 12 अप्रैल 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सार्थक समीक्षा।लेकिन यह बात भी ग़ौर तलब है कि अपने पसीने से समाज का पेट भरने वाले इन श्रम वीरों ने एक भी वाइरस को अपने साथ नहीं ढोया , भले इस 'सभ्य' समाज ने उनके शरीर को केमिकल से धो दिया हो!
ReplyDeleteआशा का दामन मत छोड़िए।
ReplyDeleteधैर्य रखिए।
अच्छा समय भी आयेगा।
बेहतरीन!!
ReplyDeleteउम्दा आलेख
ReplyDeleteसंवेदनाओं से ओत प्रोत
ज़िंदाबाद
सामयिक और सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteआप आजकल बढ़िया लिख रही है।यही धार बनी रहें।शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआप आजकल बढ़िया लिख रही है।यही धार बनी रहें।शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुनीता जी बहुत बढ़िया लिखा आपने प्रत्येक घर की कहानी को हकीकत बयां किया बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteसुनीता जी बहुत ही बढ़िया लिखा हर घर की कहानी को आपने चरितार्थ बयान किया है धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित , संतुलित और सब कुछ समाहित है इस आलेख में । बढ़िया विश्लेषण सुनीता जी। । 🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌
ReplyDeleteअपनी अपनी गिरेबाँ में झाँकने के लिए विवश करता बहुत ही चिंतनपरक एवं बढ़िया आलेख !
ReplyDeleteसिल्ली के उजले और काले दोनों पहलुओं को बारीकी से रखा है ... अच्छा आलेख ...
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