सुना है कि डेंगू के कई मरीज बकरी के दूध से स्वस्थ हो गए। इससे डॉक्टर भी हैरान हैं। बकरी के महत्व को फिर से समझना होगा। समाज के हित में ऐसा करना जरूरी है। यदि आप सोचते हैं कि दिवाली के पटाखों के साथ ही मच्छरों का भी सफाया हो गया यानी कि डेंगू का भी अंत हो गया, तो ऐसा नहीं है। डेंगू के मामले कम जरूर हुए हैं पर पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं। देश भर में उसका खतरा अब भी बना हुआ है। कुछ दिन पहले चर्चा फैल गई कि बकरी का दूध पीने से डेंगू ठीक हो जाता है। अचानक बकरी के दूध के दाम बढ़ गए। बेचारे डॉक्टर्स परेशान हैं। सोच रहे हैं कि क्या वे बकरी पर पीएचडी कर लें/ कल तक जिस बकरी की कोई औकात नहीं थी वह आज खड़ी मुस्करा रही है। गांधी जी ने बकरी को उसकी गरिमा दिलाई थी, पर उनके जाते ही हम उनके साथ-साथ बकरी को भी भूल गए। बकरी का दूध पीना लोगों ने छोड़ दिया। मुझे याद है बचपन में कभी बकरी गुस्से में आकर सींग मार देती थी तो उसे चुड़ैल कह देते थे। बकरी की तो शक्ल ही चुड़ैल सी नजर आती थी। गाय सींग मारे या पूंछ, फिर भी माता कहकर पूजी जाती थी, बकरी की आवाज एकदम चेपू किस्म की है न! तो हम स्कूल में अक्सर दोस्तों को चिढ़ाने में एक दूसरे को बकरी की गाली देते थे कि क्या बकरी की तरह में-में लगा रखी है। बकरी ये सब देख-देख कर थक गई थी। जाने कितने दिनों का अवसाद पाले हुए थी। आखिर एक दिन बकरी गुस्से में आकर डेंगू के मच्छर से मिली और बोली- ये इंसान हमारी कद्र कभी नहीं करेगा। तुझ पर मिट्टी का तेल डलवा देगा, ऑल आऊट से भगवा देगा और मेरा तो हमेशा से शोषण हो रहा है। जरा सी घास डाली और दूध निकाल लिया। किसी भी पेड़ के पत्ते हों यहां तक की नीम के पत्ते, पपीते के पत्ते, सब मुझे खिला देते हैं और दूध निकाल लेते हैं। हालांकि छोटे बच्चे को दूध मेरा पिलाते हैं, दवा के रूप में भी मेरा ही दूध काम आता है लेकिन माता गाय को बताते हैं। अरे मुझे बहन ही कह देते। या मौसी कह सकते थे। मेरे सामने ही मेरे बच्चे को मार कर खा जाते हैं। तुम्हीं बताओ भैया आखिर कब तक मैं बेइज्जती सहन करूं/ बकरी ने डेंगू के मच्छर राजा से विनती की और डेंगू के मच्छर ने रक्षाबंधन के दिन वचन दिया कि हे बहना, जब-जब ये मनुष्य मेरे क्रोध की चपेट में आएगा इनकी सारी पुश्तें तुम्हें याद करेंगी। तब इन्हें छठी का दूध नहीं तुम्हारा ही दूध याद आएगा। और यह मूर्ख मनुष्य खुद नीम, पपीते के पत्ते ही खाएगा जो इसने तुम्हें खिलाए हैं। सुनकर बकरी बहुत प्रसन्न हुई और मच्छर भाई अंतर्ध्यान हो गए। इसलिए इस साल संपूर्ण भारतवर्ष में डेंगू के मच्छर ने जब उत्पात मचाया, तो मच्छर के काटे रोगी को पपीते तथा नीम का रस पिलाया गया। साथ ही सुबह- शाम प्रसाद के रूप में मरीज को बकरी का दूध पिलाया गया। कई जगहों पर बकरी का दो घूंट दूध पचास रुपये तक में बिका है जबकि इतने में गाय का एक किलो दूध मिलता है। आज कई लोग बकरी पालने की सोच रहे हैं। बकरी को अच्छा-अच्छा खाने को मिल रहा है। अब ये सब देख कर तो ऎसा लगता है कि हमें बकरी से हाथ मिला लेना चाहिए। गाय की जगह बकरी पर निबंध बच्चों से लिखवाया जाए और उसके दूध पर पीएचडी कर ली जाए ताकि आने वाले समय में डेंगू के मच्छर से छुटकारा मिल सके। सरकार को भी इस पर ध्यान देना होगा। पशुपालन विभाग को चाहिए कि वह बकरी पालन के महत्व को प्रचारित करे। इस तरह का कार्यक्रम गांधी जयंती पर शुरू किया जा सकता है। सुनीता शानू |
Tuesday, January 28, 2014
बकरी को चाहिए उसका खोया हुआ सम्मान (नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बक री ;)
ReplyDeleteआपकी यह रचना अभी दो तीन सप्ताह पहले हमारे यहां शाम को निकलने वाले "प्रभात किरण" में भी छपी थी. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.