महानगरों में माँ बनने के मायने किस तरह बदल गये हैं, आप भी पढ़ कर अपनी राय अवश्य दें, नई दुनियां की नायिका पत्रिका में प्रकाशित एक आर्टिकल...।
मैट्रो में माँ बनने के मायने बदले
निदा फ़ाजली साहब का एक शेर है...
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें, जाने कहाँ गई
फ़टे पुराने एक एलबम में, चंचल लड़की जैसी माँ...
एक माँ की आँखों से देखती हूँ, तो लगता है कि माँ के भीतर छुपी वो चंचल लड़की जाग गई है, जिस उम्र में माँ ने बच्चों को जन्म दिया था, वह उम्र आज की लड़कियों के आसमान को छूने की है। आज लड़कियाँ अपने पैरों पर खड़ी हैं, लड़कियाँ ऊँचे-ऊँचे सपने देखती हैं, और उन सपनों में रंग भरने का जज्बा भी रखती हैं, आज लड़कियाँ यह बात अच्छे से जान गई हैं कि उनका काम विवाह करके सिर्फ़ बच्चे पैदा करना ही नहीं है, लड़कियाँ ही नहीं लड़के भी ऎसा ही जीवन साथी पसंद करते हैं, जो उनके साथ कदम से कदम मिला कर चले। उनके लिये विवाह करना और माता-पिता कहलाने से जरूरी ज़िंदगी को अच्छे से जीना है, आज जज्बात या संस्कारों की दुहाई देकर हम बच्चों के निर्णय को नहीं बदल सकते हैं...।
सेंट्रल एडॉप्शन रिसर्च अथॉरिटी( सी ए आर ए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक पच्चास हजार बच्चे अनाथ हैं लेकिन एडॉप्शन ऎजेंसियों की लापरवाही से अथॉरिटी के पास कुल 1200 बच्चों का ही लेखाजोखा है जबकि नौ हजार भारतीय ऎसे हैं जिन्हें बच्चे गोद लेने हैं। 2015 में 1368 बच्चों को नया घर दिया गया है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गाँधी का कहना है कि कार्य प्रणाली में सुधार करके हर साल 15000 बच्चों को ऎडाप्ट किया जायेगा ताकी बच्चों का भविष्य सुदृड़ किया जा सके।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आजकल की लड़कियाँ पढ़ी-लिखी और समझदार होती हैं, वे माँ बनने और बच्चों के भविष्य को लेकर हमेशा सावधान रहती हैं। एम्स की डॉ अर्चना धवन का भी यही मानना है कि आज जल्दी विवाह करने और जल्दी संतान पैदा होने की समस्या कम हो गई है क्योंकि उनके क्लिनिक में आने वाली लड़कियां बीस से चालीस साल की होती हैं जो नौकरीपेशा, पड़ी-लिखी हैं जो बच्चे को जन्म देने से पहले खुद को मजबूत करना चाहती हैं, ये वो लड़कियां हैं जो अपने पैरों पर खड़ी हैं और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं हैं। डॉ धवन कहती हैं कि अधिकतर ऎसे पति-पत्नी होते हैं जिनके बच्चे नहीं हो रहे होते हैं, कुछ लड़कियाँ विवाह तो कर लेती हैं लेकिन अपना कैरियर बचाये रखने के लिये माँ बनना पसंद नहीं करती हैं, उनमें बढ़ती उम्र के कारण शारीरिक सरंचनाओं में परिवर्तन होने लगता है और हार्मोन संबंधी कई समस्यायें मातृत्व में बाधक बन जाती हैं। ऎसे में क्लिनिक में कृत्रिम विकल्पों द्वारा बच्चे पैदा किये जाने के साधन उपलब्ध हैं। उन महिलाओं को आई वी एफ़ तथा एब्रियोएडॉप्शन तकनीक द्वारा माँ बनने का सुख प्राप्त हो पाता है। कुछ स्त्री-पुरुष ऎसे भी होते हैं जो माता-पिता बनने के लिये खुद को तैयार महसूस नहीं करते, ज्यादातर ऎसी लड़कियाँ है जो विवाह तो कर लेती हैं लेकिन चालिस से पहले माँ नहीं बनना चाहती, वे एक लम्बे समय के लिये अण्ड और शुक्राणुओं को सरंक्षित करवा देते हैं, जिससे बड़ी उम्र में भी वह इच्छानुसार माँ बन सकती हैं। एक वजह सोशल मीडिया, फ़िल्म सिटी का प्रभाव भी कह सकते हैं जिसमें लड़कियाँ फ़िल्म की अभिनेत्रियों की तरह विवाह करना या माँ बनना समय की बर्बादी समझती हैं। कुछ को फ़िक्र रहती है अपने फ़िगर खराब हो जाने की, तो कुछ खुद को जिम्मेदारियों में बाँधना नहीं चाहती हैं।
यह सब देख सुन कर काफ़ी हद तक आप कह सकते हैं कि उस माँ की छवि धुँधली होती जा रही है, जिसके पाँच से सात बच्चे होने पर भी माथे पर शिकन नहीं आया करती थी, जो बच्चों को डाँटते, दुलारते अपने माँ होने पर फूली न समाती थी, एक ऎसी माँ जो बच्चों का होना पहली जरूरत समझा करती थी, मै याद करती हूँ तो आज भी माँ का नाम लेने पर मुझे वही सर पर आँचल ओढे एक चेहरा नजर आता है जो हर पल साये की हमारे साथ रहा करता था, जो हम बच्चों के जागने से पहले जाग जाता था, हमारी जरूरत की हर चीज़ उसके पास होती थी, कभी-कभी माँ हमे जादू का पिटारा सी लगती थी, बड़े भाई-बहनों के कपड़े छोटे और उनके पुराने कपड़े घर के डस्टर बन जाया करते थे, लेकिन घर में किसी भी चीज़ का अभाव माँ महसूस ही नहीं करने देती थी।
आज देखती हूँ तो घर से उस माँ का साया भी आँचल की तरह उड़ गया है, सर दर्द होने पर माथे पर माँ का हाथ नहीं होता न तेल ही मलने का समय हो पाता है, बच्चे नहीं जानते कि भारतीय व्यंजन कितने प्रकार के होते हैं, क्योंकि पकवान बनाना तो दूर, भोजन में फ़ास्ट फ़ूड का समावेश अधिक हो गया है, आये दिन होटल का खाना खाने से स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, घर- परिवार, बच्चों की जिम्मेदारी से कतराते बच्चे एकांत चाहते हैं इसका एक दुष्परिणाम संयुक्त परिवारों का विघटन भी है, बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी के दुलार से वंचित रह जाते हैं, आज चार-पाँच बच्चों की देखभाल तो दूर एक बच्चे की देखभाल का समय भी माँ के पास नही होता, बच्चे या तो आया के पास पलते हैं या क्रैच में पल रहे होते हैं। इससे बच्चों में घर के बड़ो के प्रति सेवा भाव नहीं पनप पाता, और धीरे-धीरे भारतीय संस्कारों का ह्वास भी हो रहा है।
इन सब बातों के बावजूद एक बहुत अच्छा पहलू भी है, वह यह कि बच्चे के जन्म से पहले ही माता-पिता अपनी संतान का भविष्य सुनिश्चित कर लेते हैं, ताकि बड़े होने पर बच्चों को परेशानी का सामना न करना पड़े। एक और अच्छी बात यह है कि भारत जैसे घनी आबादी के देश में जहाँ बहुत से बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं है वहीं अधिकतर लड़के-लड़कियाँ अनाथ बच्चों को गोद लेकर उन्हें पालने-पोसने में विश्वास करते हैं, एक तरह से देखा जाये तो यह सबसे अच्छा काम है, जिन बच्चों को समाज नाजायज या अनाथ कह कर प्रताड़ित करता आ रहा था, उन बच्चों को नया घर मिलने की सम्भावना बढ़ गई है।
मुझे लगता है बदलते परिवेश में नई पीढ़ी द्वारा अनाथ बच्चों को पढ़ाना लिखाना, माता-पिता का प्यार देना, एक नया घर देना ही सच्चे मातृत्व का सुख है।
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें, जाने कहाँ गई
फ़टे पुराने एक एलबम में, चंचल लड़की जैसी माँ...
एक माँ की आँखों से देखती हूँ, तो लगता है कि माँ के भीतर छुपी वो चंचल लड़की जाग गई है, जिस उम्र में माँ ने बच्चों को जन्म दिया था, वह उम्र आज की लड़कियों के आसमान को छूने की है। आज लड़कियाँ अपने पैरों पर खड़ी हैं, लड़कियाँ ऊँचे-ऊँचे सपने देखती हैं, और उन सपनों में रंग भरने का जज्बा भी रखती हैं, आज लड़कियाँ यह बात अच्छे से जान गई हैं कि उनका काम विवाह करके सिर्फ़ बच्चे पैदा करना ही नहीं है, लड़कियाँ ही नहीं लड़के भी ऎसा ही जीवन साथी पसंद करते हैं, जो उनके साथ कदम से कदम मिला कर चले। उनके लिये विवाह करना और माता-पिता कहलाने से जरूरी ज़िंदगी को अच्छे से जीना है, आज जज्बात या संस्कारों की दुहाई देकर हम बच्चों के निर्णय को नहीं बदल सकते हैं...।
सेंट्रल एडॉप्शन रिसर्च अथॉरिटी( सी ए आर ए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक पच्चास हजार बच्चे अनाथ हैं लेकिन एडॉप्शन ऎजेंसियों की लापरवाही से अथॉरिटी के पास कुल 1200 बच्चों का ही लेखाजोखा है जबकि नौ हजार भारतीय ऎसे हैं जिन्हें बच्चे गोद लेने हैं। 2015 में 1368 बच्चों को नया घर दिया गया है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गाँधी का कहना है कि कार्य प्रणाली में सुधार करके हर साल 15000 बच्चों को ऎडाप्ट किया जायेगा ताकी बच्चों का भविष्य सुदृड़ किया जा सके।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आजकल की लड़कियाँ पढ़ी-लिखी और समझदार होती हैं, वे माँ बनने और बच्चों के भविष्य को लेकर हमेशा सावधान रहती हैं। एम्स की डॉ अर्चना धवन का भी यही मानना है कि आज जल्दी विवाह करने और जल्दी संतान पैदा होने की समस्या कम हो गई है क्योंकि उनके क्लिनिक में आने वाली लड़कियां बीस से चालीस साल की होती हैं जो नौकरीपेशा, पड़ी-लिखी हैं जो बच्चे को जन्म देने से पहले खुद को मजबूत करना चाहती हैं, ये वो लड़कियां हैं जो अपने पैरों पर खड़ी हैं और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं हैं। डॉ धवन कहती हैं कि अधिकतर ऎसे पति-पत्नी होते हैं जिनके बच्चे नहीं हो रहे होते हैं, कुछ लड़कियाँ विवाह तो कर लेती हैं लेकिन अपना कैरियर बचाये रखने के लिये माँ बनना पसंद नहीं करती हैं, उनमें बढ़ती उम्र के कारण शारीरिक सरंचनाओं में परिवर्तन होने लगता है और हार्मोन संबंधी कई समस्यायें मातृत्व में बाधक बन जाती हैं। ऎसे में क्लिनिक में कृत्रिम विकल्पों द्वारा बच्चे पैदा किये जाने के साधन उपलब्ध हैं। उन महिलाओं को आई वी एफ़ तथा एब्रियोएडॉप्शन तकनीक द्वारा माँ बनने का सुख प्राप्त हो पाता है। कुछ स्त्री-पुरुष ऎसे भी होते हैं जो माता-पिता बनने के लिये खुद को तैयार महसूस नहीं करते, ज्यादातर ऎसी लड़कियाँ है जो विवाह तो कर लेती हैं लेकिन चालिस से पहले माँ नहीं बनना चाहती, वे एक लम्बे समय के लिये अण्ड और शुक्राणुओं को सरंक्षित करवा देते हैं, जिससे बड़ी उम्र में भी वह इच्छानुसार माँ बन सकती हैं। एक वजह सोशल मीडिया, फ़िल्म सिटी का प्रभाव भी कह सकते हैं जिसमें लड़कियाँ फ़िल्म की अभिनेत्रियों की तरह विवाह करना या माँ बनना समय की बर्बादी समझती हैं। कुछ को फ़िक्र रहती है अपने फ़िगर खराब हो जाने की, तो कुछ खुद को जिम्मेदारियों में बाँधना नहीं चाहती हैं।
यह सब देख सुन कर काफ़ी हद तक आप कह सकते हैं कि उस माँ की छवि धुँधली होती जा रही है, जिसके पाँच से सात बच्चे होने पर भी माथे पर शिकन नहीं आया करती थी, जो बच्चों को डाँटते, दुलारते अपने माँ होने पर फूली न समाती थी, एक ऎसी माँ जो बच्चों का होना पहली जरूरत समझा करती थी, मै याद करती हूँ तो आज भी माँ का नाम लेने पर मुझे वही सर पर आँचल ओढे एक चेहरा नजर आता है जो हर पल साये की हमारे साथ रहा करता था, जो हम बच्चों के जागने से पहले जाग जाता था, हमारी जरूरत की हर चीज़ उसके पास होती थी, कभी-कभी माँ हमे जादू का पिटारा सी लगती थी, बड़े भाई-बहनों के कपड़े छोटे और उनके पुराने कपड़े घर के डस्टर बन जाया करते थे, लेकिन घर में किसी भी चीज़ का अभाव माँ महसूस ही नहीं करने देती थी।
आज देखती हूँ तो घर से उस माँ का साया भी आँचल की तरह उड़ गया है, सर दर्द होने पर माथे पर माँ का हाथ नहीं होता न तेल ही मलने का समय हो पाता है, बच्चे नहीं जानते कि भारतीय व्यंजन कितने प्रकार के होते हैं, क्योंकि पकवान बनाना तो दूर, भोजन में फ़ास्ट फ़ूड का समावेश अधिक हो गया है, आये दिन होटल का खाना खाने से स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, घर- परिवार, बच्चों की जिम्मेदारी से कतराते बच्चे एकांत चाहते हैं इसका एक दुष्परिणाम संयुक्त परिवारों का विघटन भी है, बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी के दुलार से वंचित रह जाते हैं, आज चार-पाँच बच्चों की देखभाल तो दूर एक बच्चे की देखभाल का समय भी माँ के पास नही होता, बच्चे या तो आया के पास पलते हैं या क्रैच में पल रहे होते हैं। इससे बच्चों में घर के बड़ो के प्रति सेवा भाव नहीं पनप पाता, और धीरे-धीरे भारतीय संस्कारों का ह्वास भी हो रहा है।
इन सब बातों के बावजूद एक बहुत अच्छा पहलू भी है, वह यह कि बच्चे के जन्म से पहले ही माता-पिता अपनी संतान का भविष्य सुनिश्चित कर लेते हैं, ताकि बड़े होने पर बच्चों को परेशानी का सामना न करना पड़े। एक और अच्छी बात यह है कि भारत जैसे घनी आबादी के देश में जहाँ बहुत से बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं है वहीं अधिकतर लड़के-लड़कियाँ अनाथ बच्चों को गोद लेकर उन्हें पालने-पोसने में विश्वास करते हैं, एक तरह से देखा जाये तो यह सबसे अच्छा काम है, जिन बच्चों को समाज नाजायज या अनाथ कह कर प्रताड़ित करता आ रहा था, उन बच्चों को नया घर मिलने की सम्भावना बढ़ गई है।
मुझे लगता है बदलते परिवेश में नई पीढ़ी द्वारा अनाथ बच्चों को पढ़ाना लिखाना, माता-पिता का प्यार देना, एक नया घर देना ही सच्चे मातृत्व का सुख है।
सुनीताशानू
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आशाओं के रथ पर दो वर्ष की यात्रा - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआपका लगभग दो वर्ष पूर्व लिखा लेख आज पढंनप का मौका मिला । सामयिक विषय पर सुंदर लेख । पूरणतपू सहमत। आपकी लेखनी ने बहुत प्रभावित किया ।
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