Saturday, November 7, 2009

जातीय दबाव से दम तोड़ती ममता





(नई दुनिया के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

पिछले दिनों सगोत्रीय विवाह से नाराज एक पिता द्वारा अपनी पुत्री की नृशंस हत्या और उससे पहले क्रूररतम उत्पीड़न की खबर आई । राजधानी के महिपालपुर इलाके की इस घटना ने लोगों को दहला दिया । इसी संदर्भ में सवाल उठता है,कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत सपिंड में विवाह करने की इजाजत नहीं है। परंतु ऐसा कोई नियम नहीं बना जिसमें यह लिखा गया हो कि सगोत्र विवाह करने पर जाति से बेदखल कर गांव से निकाल दिया जाएगा या जान से मार दिया जाएगा।

हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय विवाह परंपरा के अनुसार विवाह अपनी ही जाति में होता है व सपिंड व सगोत्र के बाहर रहता है। परंतु कितने लोग हैं जो गोत्र से भलीभांति परिचित हैं? जहां तक हमारी नजर जाती है, हम अपने बच्चों को भी अपने परिवार की ही शिक्षा देते हैं। जिसे सपिंड कहा जा सकता है। तो आज छोटा सा बच्चा भी जानता है कि कौन उसकी बहन है, कौन भाई लेकिन अगर अठारह वर्ष के किसी बच्चे से पूछा जाए उसका गोत्र क्या है तो वह शायद बता नहीं सकेगा। वह जाति को जानता है, परिवार को समझता है। उसकी नजर में चाचा, ताऊ, बुआ सभी अपने परिवार के अंतर्गत आते हैं परंतु सगोत्र की परिभाषा समझाए बगैर कैसे कोई समझ पाएगा की सगोत्र होता क्या है? और एक बात जो सबसे जरूरी है, देश भर के सगोत्री अपने चेहरे पर लिखकर तो नहीं चलते कि हम भाई-भाई हैं। कैसे कोई जान पाएगा की कौन उसके गोत्र से संबंधित है और कौन नहीं?

यह सवाल सिर्फ एक-दो बच्चों का ही नहीं तमाम भारतीयों का है जिसके कानून में अंतर्जातीय विवाहों और प्रेम विवाहों को मान्यता तो दे दी है परंतु समाज अभी तक अपना नहीं पाया है। ऐसा लगता है जैसे विश्व में एक सी पाठशाला चालू हो गई है जो कौमी एकता को भंग कर सगोत्री एकता की बात कर रही है। आज जो हमारा देश आधुनिकता का दावा करता है, किसी भी कानून को मानें या नहीं मानें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन सामान्य परिवार समाज के ठेकेदारों की चपेट में आ जाते हैं।

जिस देश में नारी को मां-बहन-बेटी के रूप में सम्मानित किया जाता रहा है । ससुराल में भी गृहलक्ष्मी, गृहस्वामिनी के रूप में समझा जाता है, उसी देश में अपनी बेटी का उत्पीड़न कोई भी माता-पिता तो नहीं कर सकते, जब तक कि उन पर गहरा सामाजिक दबाव न हो । क्या इस गुनाह का समर्थन किया जाना चाहिए?

मौजूदा हालात में हम कैसे सक्षम हो पाएंगे एक सुंदर और सुगठित समाज बनाने में। कैसे पिरो पाएंगे समस्त भारतवर्ष को एक सूत्र में। जब घर में ही फ़ूट पड़ी होगी तो दुश्मनों से मुकाबला कैसे हो पाएगा। तमाम बातें इस ओर इशारा कर रही हैं कि आज भी हम पाषाण युग में जी रहे हैं।


सुनीता शानू

9 comments:

  1. यही हमारे तथाकथित विकसित इंडिया का दूसरा चेहरा है जिसे 'भारत"कहा जाता है.............

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  2. ससुराल में भी गृहलक्ष्मी, गृहस्वामिनी के रूप में समझा जाता है, उसी देश में अपनी बेटी का उत्पीड़न कोई भी माता-पिता तो नहीं कर सकते, जब तक कि उन पर गहरा सामाजिक दबाव न हो । क्या इस गुनाह का समर्थन किया जाना चाहिए?

    आज के परिपेक्ष्य मे हमारे सामाजिक ताने बाने को रिवाइज करने की जरुरत है.

    रामराम.

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  3. घटना दुखद और मूर्खतापूर्ण है। सामाजिक कुरीति ने तो समाज का बहुत कुछ छीन लिया है। शिक्षा और सामाजिक जागरण के बिना छुटकारा मुश्किल लगता है।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. बहुत बढ़िया लेख खोजकर प्रकाशित किया है।
    इसकी चर्चा कल निमान लिंक पर लगा रहा हूँ-
    http://anand.pankajit.com/

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  5. पता नही लोगो को क्या हो गया है...आप ने अच्छा लिखा धन्यवाद

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  6. han sunita ji.. aap ne mudda sahi uthaya hai..
    aajkal to gotra me bhi vivaah pariwaar walon ki marzi se bhi hone lage hain...

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  7. बहुत अफसोसजनक है यह ।

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  8. जैसा कि कवि कुलवंत जी ने कहा है कि अब तो गोत्र में भी परिवार वालों की मर्जी से विवाह होने लगे हैं, यह इसकी इब्तिदा है. युगों से प्रचलित हुए रिवाजों को तोड़ने के लिए भी बहुत वक्त लगता है. देखा जाए तो हम आडम्बर और मिथ्याचार में आज भी पल रहे हैं. गाथाओं, फिल्मों, और प्रेम-कहानियों में प्रेमियों के लिए आंसू बहायेंगे लेकिन वही स्थिति जब स्वयं के घर में पैदा होती है तो गिरगट की तरह रंग बदल लेते हैं. यहाँ तक कि युवक और युवतियां भी अपने हथियार डाल देते हैं. हम नारे लगाते हैं कि समाज बदलना चाहिए - यह नारा भ्रात्मक है. देश में गणना के अनुसार पुराने रूढिवादी लोगों की अपेक्षा युवा-समाज का बाहुल्य है. पहले कम से एक कुरीति को स्वयं तोड़ कर फिर नारा लगाने का अधिकार है. आजका युवा समाज ही इन कुरीतियों को बदल सकता है. उन्हीं से समाज बन रहा है और आगामी समाज की नींव भी उन्हें ही रखनी है. आजके युग में अपना अधिकार माँगा नहीं जाता, छीनना पड़ता है. पुरानी पीढियां तो प्राकृतिक रूप से ही चली जायेंगी किन्तु दुःख इस बात का होता है कि युवा भी उम्र के साथ साथ उसी प्रकार के रूढ़िवादी हो जाते हैं.
    महावीर शर्मा

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