Wednesday, August 22, 2012

वजूद ( राजस्थान साहित्य अकादमी में प्रकाशित)

 ये कहानी राजस्थान साहित्य अकादमी के अगस्त अंक में प्रकाशित हुई है। मुझे नही मालूम आपको पसंद आयेगी या नही। मगर यही सच है ये किसी एक की कहानी नही है। बस कोशिश की है खुद को समझने की...


...जिस कोख से भाई जन्मा उसी कोख से मैं पराई कैसे हो गई?
‘‘बाबा तुम्हीं तो कहा करते थे, कि मैं बेटा हूं तुम्हारा, तो आज क्या हो गया बाबा? क्या विवाह होते ही सब कुछ भूला दिया जाता है।’’ कहते-कहते मेरी आँखें भर आईं।
माँ-बाबा को घर ले जाने की सारी खुशी काफूर हो गई। कितना खुश थी मैं यहां आते हुए सारे रास्ते बस एक ही विचार आ रहा था, कि अब माँ-बाबा खुश रह पायेंगे, मैं उन्हें अपने साथ घर ले जाऊंगी। जब से मेरी शादी हुई है, उनके लिए एक दिन की खुशी भी नहीं खरीद पाई हूं। बरसों से एक-एक दिन गिन रहे हैं, कि कब बेटा-बहू आयेंगे और उन्हें अपने साथ ले जायेंगे, परन्तु मैंने सदा उन्हें इन्तजार करते हुए पाया, और आज फैसला हो भी गया कि बेटा-बहू के पास उन्हें ले जाने की फुर्सत ही नहीं है, जहां चाहें, जिसके साथ चाहें, रह सकते हैं। आज जब किस्मत ने मुझे उन्हें अपने साथ रखने का मौका दिया है, तो दोनों मना कर रहे हैं।
मैं फूट-फूट कर रो पडी। कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं? ‘‘क्या हो गया बाबा? यह बेटा-बेटी का फर्क कहां से आ गया?’’
बाबा मगर कुछ भी न बोल पाये। हमेशा की तरह शांत चेहरा। मगर माँ बुदबुदाती रही, ‘‘कैसे रह सकते हैं हम तेरे घर में? लोग क्या कहेंगे? सारी बात बेटों पर आ जायेगी कि बेटे नालायक हैं। मां-बाप को रख नहीं पाये, बुढापे में बेटी के सिर पर पडे हैं और फिर तेरे सास-ससुर ! वो क्या कुछ नहीं कहेंगे ?’’
फिर अचानक जोर से बोली, ‘‘तू जा अब तू पराई हो गई है। हमारा तेरे घर में रहना ठीक नहीं।’’ इससे पहले कि मैं कुछ कहती, जैसे उन्हें ख्याल आ गया कि पराई कह कर बेटी का दिल तो नहीं दुखा दिया, मुझे समझाने लगी, ‘पाप लगता है न, बेटी के घर में रहेंगे तो नरक के भागीदार होंगे कि नहीं, बेटी! तुम बात को समझो और जवांई बाबू को भी समझाओ। हमारी फिक्र ना करें, हम रह लेंगे कैसे भी दो वक्त की रोटी ही तो चाहिए। थोडी कट गई अब थोडी और कट जायेगी राम भरोसे।’’
यही जो विचारधारा है इंसान की, जो उसे चैन से जीने भी नहीं देती। धर्म-कर्म का जामा पहने अंधविश्वास आज भी घेरे रहते हैं। मैं बेबस निःसहाय सोचती रह गई। खुद को कोसती रही, कि काश मैं बेटा बन पाती? किन्तु इसमें मेरी गलती ही क्या है? अगर नहीं तो कुदरत का ये कैसा मजाक है भगवान्? जो मुझे अपने कर्त्तव्य से विमुख करने पर आमादा है। मेरी नाकामयाबी पर मेरी अंतरात्मा मुझे धिक्कारती रही। लगता है मेरी जन्दगी आज एक सवाल बन कर रह जायेगी।
और अतीत की चादर ने मुझे अपने में लपेट लिया। मुझे मेरे तमाम सवालों के जवाब मिलने लगे, ‘‘अरे! मैं तो बचपन से ही पराई थी, मैं उनका प्यारा बेटा कैसे बन सकती थी?’’ मुझे याद है, जब कभी भी मैं घर की किसी चीज पर अपना हक जताया करती थी, माँ भाई को समझाती थी, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, तूं फिक्र मत किया कर, जब इसे शादी कर इसके घर भेज देंगे, तब सब कुछ तेरा ही तो हो जाना है।’’ उस वक्त उनकी बातें मुझे बहुत चुभती थीं और मैं गुस्से में बाबू जी से माँ की शिकायत किया करती थी, और बाबू जी भी तो मेरी हर बात पर मुझे सराहा करते थे, कहते थे कि ‘मैं उनका प्यारा बेटा हूं’, लेकिन जब माँ उन्हें समझाती बेटियां तो पराया धन है उनसे मोह मत कीजिये, उस समय वे भी माँ की हां में हां मिला कर कहते थे, ‘हां बेटियां तो पराई अमानत होती है, एक दिन अपना घर बसाना ही है।’
अपना घर ! मगर कौनसा बाबा! मैं अचानक पूछ बैठी थी। मेरी बात सुनकर माँ ने हँस कर कहा था, ‘‘देखो, कितनी फिक्र हो गई है इसे, यह बात कितनी जल्दी गई है इसके कानों में। अरे! जिस घर तू ब्याह के जायेगी, वो तेरा ही तो घर होगा, तेरे पति का घर ही तो होगा तेरा घर, पागल लडकी।’’ और मैं शर्मा कर भाग खडी हुई थी।
.....मेरा घर! कौनसा है मेरा घर? यकायक जैसे शरीर में हरकत हुई। जैसे गहन-निद्रा से जाग गई....सचमुच कौनसा है मेरा घर? एक वो घर जिसे मैं छोडकर आई हूं, जहां बचपन बीता, जिसके हर कोने में, दीवारों से, मैं परिचित थी। फिर भी जहां मुझे पराई अमानत समझा जाता था, या फिर यह जहां आकर एक नया नाम मिला, नया रिश्ता मिला, नये लोग अपरिचित से माहौल में परिचित बन कर रहना। क्या यही है मेरा अपना घर? सहसा दिल से एक आवाज आई, ‘‘याद कर वो दिन जब घर में एक हादसा हो गया था, और सास ने तेरे लिये कहा था, अरे! यह तो पराई जाई है इसे दर्द कहां?’’ उफ! तो कौनसा घर है मेरा? मैं चीख पडी, कितना छलावा है इस दुनिया में माँ! मुझे अचानक अपने नीचे से जमीन खिसकती नजर आई, चारों तरफ बस अंधेरा ही अंधेरा था। मेरा वजूद कहां है बाबा? एक ये घर जहां मैं पराई अमानत हूं, एक वो घर जहां मैं पराई जाई हूं, मगर मेरा प्यार तो दोनों ही में बराबर है, मैंने कब चाहा था? एक नया घर, एक नया साम्राज्य, क्यों एक नये रिश्ते से बांध कर घर से बेदखल कर दिया मुझे? बोलो माँ, जिस कोख से भाई जन्मा, उसी कोख से मैं पराई कैसे हो गई? मेरा हृदय वेदना से चीत्कार कर उठा, रोम-रोम में कम्पन्न होने लगा। मैं कौन हूं? मेरा वजूद क्या है? कहां है मेरा घर? क्यों मुझे मेरे माँ-बाप को अपने साथ रखने पर रोक लगी है। माँ मुझे बताओ? तुम भी तो एक औरत हो? फिर यह कठोरता कैसी?
माँ कुछ क्षण चुप रही, फिर बोली, ‘‘जानती हो! यह सभी के बस की बात नहीं है, अपना घर छोडकर किसी और का घर बसाना। क्या पुरुष ऐसा कर सकता है? जो धैर्य, सहनशीलता, दर्द सहने की शक्ति, ईश्वर ने नारी को दी है, क्या पुरुष के पास है? इस जग की निर्मात्री नारी है, वह एक नव-जीवन का निर्माण करती है, यह सामर्थ्य बस उसी के पास है कि वो अपना घर खुद बना सकती है, तुम्हारे लिये यह बहुत बडी खुशी की बात है कि तुम्हारा अपना सुखी परिवार है और मैं भी अपने इसी घर में तुम्हारे बाबा के साथ अंतिम समय तक रहना चाहती हूं, यहां हमारी बीते दिनों की यादें हैं, यह घर मेरा और तेरे बाबा का सपना है। हम दोनों यहीं रह कर ही खुश रह सकते हैं।’’

सुनीता शानू


5 comments:

  1. ek bar fir padh raha hun aapki ye kahani! jo ki har stri ke man ki bat keh rahi hai! sawaal anuttrit hai lekin sach muh-baye khada hai!

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  2. bahut hi marmik likha hai!!!! ak ak sabda me dard chipa hai jo har ourat ke dil ka dard hai

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