Tuesday, November 18, 2014

यात्रा संस्मरण- पटना पुस्तक मेला



यात्रा संस्मरण- पटना पुस्तक मेला

यात्राएं तो बहुत की हैं, कभी अकेले तो कभी समूह में किंतु पटना पुस्तक मेला यात्रा मेरी ज़िंदगी में एक विशेष स्थान रखती है। मै नहीं जानती थी कि ऎसा भी होता होगा, जब किसी अनजान शहर से अनजान लोगों के द्वारा आपको बुलाया जायेगा, वह भी किसी विशेष प्रयोजन से खैर...
सुबह का वक्त था, मै बच्चों के लिये नाश्ता तैयार कर रही थी। दिन क्या था याद नहीं लेकिन एक अपरीचित सा स्वर था, उधर से आवाज आई... मै रत्नेश्वर सिंह बोल रहा हूँ पटना से, आप सुनीता शानू बोल रहीं है? मै नाम से परीचित थी लेकिन आवाज़ से नहीं सो मैने भी खुशी के साथ उनकी आवाज़ का अभिनन्दन करते हुए बताया कि मै ही सुनीता शानू बोल रही हूँ, कहिये कैसे हैं आप? माफ़ कीजियेगा आपकी किताब के लोकार्पण पर मै आ नहीं पाई थी। इस पर उन्होने कहा कोई बात नहीं फ़िलहाल मेरे फोन करने का विशेष प्रयोजन है, हम हर साल पटना पुस्तक मेले का आयोजन करते हैं और उसमें दूर-दूर से नामचीन लोगों को बुलाते हैं। नामवर सिंह जी जैसे अनेक बड़े साहित्यकार इस मेले की शान रहे हैं। इसमें एक जनसंवाद कार्यक्रम होता है, जिसमें लेखक की पाठको से सीधे बात होती है। लिहाजा आपको फोन करने का मकसद आपको पटना पुस्तक मेला में आमंत्रित करना चाहते हैं, आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि आपका नाम हमे नवभारत से संजय कुंदन जी ने दिया है। जब रत्नेश्वर जी से मैने कहा मेरा ही नाम क्यों और भी महिलायें अखबारों में छप रही हैं इस पर उन्होने कहा कि संजय कुंदन जी से हमने पूछा कोई महिला व्यंग्यकार बताईये जो अच्छा लिखती हैं, इस कर उन्होनें आपका ही नाम लिया। सुनकर बेहद रोमांच हुआ, एक शख्स जिसे मै अच्छे से जानती तक नहीं जिसे कभी देखा तक नहीं जिन्होनें अधिकतर व्यंग्य खेद है कह कर लौटा दिये थे, मेरा नाम कैसे लिया वह भी इतने विशेष कार्यक्रम में, आश्चर्य और खुशी इतनी थी कि आँख से आँसू निकल आये।

खैर सुनहरे पल ज़िंदगी में कभी-कभी आते हैं, और यह भी सच है कि जिन लोगों के बारे में हम सोच भी नहीं पाते वही हमारी सफ़लता का एक हिस्सा बन जाते हैं। आखिर एक दिन टिकिट भी आ गई कि मुझे इंडिगो से जाना है एयर इंडिया से वापस आना है। इस दौरान एक भी दिन नही मिल पाया कि मै जनता के सामने क्या प्रस्तुत करूंगी क्या नहीं कुछ तो तैयारी कर लूँ। यह भी नहीं मालूम था कि कार्यक्रम की रूपरेखा क्या है? ऎसे में ही रत्नेश्वर जी ने एक अखबार की कटिंग लगाई जिसमें कई लेखकों के साथ मेरा भी नाम था। किंतु उस दिन जनसंवाद कार्यक्रम में दो लोगों का नाम था एक मेरा दूसरा ललित मंडोरा... ये कहना गलत नहीं होगा कि मै ललित मंडॊरा से अच्छी तरह परीचित नहीं थी, खैर अपने अंदाज़े पर मैने ललित जी को फोन लगाया कि क्या आप ही ललित मंडॊरा है? इस पर वे हँसे और बोले जीहाँ मै ही ललित मंडोरा हूँ, चलिये देखते हैं कार्यक्रम में चल कर क्या होता है, मैने उनसे पूछा हमें करना क्या होगा? उन्होनें बताया कि दो चार व्यंग्य सुना देंगें, मेरी नई पुस्तक का लोकार्पण कर देंगें और बाद में पाठकों के साथ सवाल जवाब होगें... सो आप फ़िक्र न करें मै हूँ न सब सम्भाल लूंगा। “मै हूँ ना” शब्द ही कुछ ऎसा है, जो अंदर से हौसला पैदा कर देता है। मैने अपने लिखे व्यंग्य में से ही कुछ छपे छपाये व्यंग्य रख लिये और अपने चाय के व्यवसाय में लगी रही।

13 नवम्बर यात्रा पर निकलने का पहला दिन था, सोचा निकलने से पहले बड़ों से आशीर्वाद ले लिया जाये, मैने अपने घर फोन मिलाया, प्रताप सोमवंशी जी को फोन मिलाया, उमेश भैया से और कुछ दोस्तों से बात की सबने शुभ कामनायें दी, कामयाब होने का आशीर्वाद दिया, प्रताप सोमवंशी जी ने कहा ये तुम्हारा पहला अवसर है देखो अब तक के तमाम अनुभव तुम्हारें काम आयेंगे, एक अच्छी सी स्पीच लिखो और खुद में आत्मविश्वास पैदा करो। ऎसे मौके बार-बार नहीं मिलते। उनकी तमाम बातों ने दिल पर असर किया और मैने रत्नेश्वर जी से कार्यक्रम की रूपरेखा के अनुसार खुद को तैयार किया।

सुबह के छः बजे की अपेक्षा फ़्लाइट ने आठ बजे की उड़ान भरी ललित जी साथ ही थे लेकिन सीटे अलग-अलग मिली, खैर पटना पहुंचते ही रत्नेश्वर जी अपनी वही स्टाईलिश टोपी पहने दूर से ही नज़र आ गये थे, मैने भी उन्हें देख कर हाथ हिलाया और अपनी मौजुदगी की खबर दी। एक खूबसूरत अहसास था उनका करबध्द स्वागत करना। मै खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी। रत्नेश्वर जी गाड़ी लेकर आये थे, एक ही गाड़ी में हम सब हवाई अड्डे से निकल पड़े। होटल की तरफ़ जाते हुए तमाम रास्ते रत्नेश्वर जी और लालित्य ललित जिनका नाम ललित मंडोरा छपा था, बोलते जा रहे थे, बहुत जोरदार कार्यक्रम होता है जनसंवाद, यहाँ के पाठक बहुत ही घमासान मचाते है, पूरे रास्ते टमाटर और अंडे का खयाल आता रहा कि कहीं मेरे मुह पर टैमटो कैचप तो नहीं बनने वाला है। बातें करते-करते वह स्थान भी आ गया जहाँ हमे रुकना था। मारवाड़ी होटल में दो कमरे बुक किये गये थे। जहाँ एक रात के लिये हमें रुकना था। सुबह का चाय नाश्ता हम सबने साथ मिलकर किया। दोपहर तक बेचैनी में बीत गई। मैने अपनी माँ को फोन मिलाया पिता से भी बात की, पतिदेव से बात की अब जाकर एक नई शक्ति, नई ऊर्जा महसूस हो रही थी। दोपहर में ही हम लोग पटना पुस्तक मेले में पहुंच गये थे। बहुत ही खूबसूरत तरीके से एक मैदान को व्यवस्थित किया गया था। बड़े-बड़े प्रकाशकों की दुकानें लगी थी, चाट-पापड़ी के अतिरिक्त हर तरह के साजो-सामान से सजा था पटना पुस्तक मेला। एक और बहुत बड़ा प्रोजक्टर लगा हुआ था जिस पर पटना के खूबसूरत दृष्य दिखाई दे रहे थे। पुस्तक मेले में विभिन्न क्षेत्रों से आये कलाकार थे। रागरंगों का ये मेला सचमुच अद्भुत था। एक विशेष बात जो देखने में आई वह यह थी की ग्रामीण इलाकों से कलाकारों को ढूँढ कर लाया गया था, जो कि प्रोफ़ेश्नल नहीं थे। मेले की कसावट में कहीं कोई कसर नज़र नही आई...

शाम का वक्त था बार-बार माइक पर सुनाई दे रहा था, जनसंवाद कार्यक्रम मे मिलिये दिल्ली से चर्चित व्यंग्यकार सुनीता शानू तथा लालित्य ललित, अब से कुछ ही देर में। सुन सुन कर हलक सूखे जा रहा था। धीरे-धीरे मंद गति से मंच की ओर प्रस्थान किया, पहले स्थान पर संचालक अजय शर्मा बैठे जो एक नामचीन लेखकों में आते हैं पटना के, दूसरे नम्बर पर मै सुनीता शानू मेरे बगल में ललित मंडोरा जी और उनकी बगल मे रत्नेश्वर जी... मुझे बस पानी की बोतल दिखाई दे रही थी मन कर रहा था सारा पानी गटक जाऊंगी तब भी गला सूखा ही रहेगा। लेकिन रत्नेश्वर जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि आप सफ़ल रहेंगी मै देख रहा हूँ... जाने क्या बात थी उनकी बात में की मै आत्मविश्वास से भर गई और इंतजार करने लगी पहले मुझे बुलाये या ललित जी को मै घबराऊंगी नहीं। सर्वप्रथम ललित जी की पुस्तक का लोकार्पण किया गया तत्पश्चात मुझे ही पहले बोलने का अवसर मिला, जैसे ही बोलने को उठी सामने से किसी ने छींक दिया मुझे हँसी आ गई शायद मेरी यही हँसी मेरे सारे डर को भगा ले गई, फिर मैने शुरु किया बोलना तो भूल ही गई कि सामने पटना का भारी जनसमुदाय है, मै एक ही लय में खुद को भूलकर बस बोलती गई। हर बात पर जनसमुदाय का तालियां बजाना ऎसा लग रहा था, एक माँ के सामने बच्चे खुशी से झूम उठते हैं, कल्पना ही तो है वैसे भी बच्चे हों या बूढे एक औरत सभी के लिये पहले एक माँ का ही दर्ज़ा रखती है... ऎसा मुझे लगता है। मेरा भाषण खत्म हुआ और ललित जी का शुरू।

जब जनसंवाद की बारी आई, न जाने कब से जवाब की तलाश में बैठे पाठकों ने मुझे सवालों के कटघरे में घेर लिया, मै हर सवाल का जवाब देते मुस्कुरा रही थी, उन्हे बच्चों की तरह समझा रही थी। कभी-कभी गुस्से में बेकाबू भी हो जाती थी, लेकिन तुरंत बात को धीरे से कह मुस्कुरा देती थी। उनके सवालों के घेरे में मै अकेली ही थी, ललित जी से किसी ने कोई प्रश्न ही नहीं किया, वो पास बैठे अब भी वैसे ही देख रहे थे जैसे कह रहे हों “मै हूं ना”

कार्यक्रम सफल रहा यह तो मै जान ही गई थी, मंच से उतरते ही बहुत से लोगों से घेर लिया और मेरे संग्रह की चाह रखी, पहले अभी विचार ही नही हुआ कि कोई संग्रह मागेंगा भी। लेकिन अच्छा लगा सब लोगो का यूं सराहना करना। मेरी खुशी की सीमा नही थी, शायद इसीलिये बयान करने को शब्द भी नहीं हैं, बस मन ही मन संजय कुंदन जी को धन्यवाद कहती रही।

रात को कई नाटक नौटकीं देखें, बिहार का लोक गीत सुना, असम अंचल से आई लड़कियों ने खूबसूरत नृत्य प्रस्तुत किया और हम उसका आनन्द लेते रहे। आज रात ही रत्नेश्वर जी और उनकी पत्नी के साथ पटना घूमने का आनंद लिया, तिलकूट, अनारसा और भी कई तरह की मिठाइयाँ चखी। देर रात होटल आये, गप-शप मारते रहे। वो रात सचमुच बहुत खूबसूरत थी, सफल कार्यक्रम और कामयाबी की रात सचमुच नींद बहुत अच्छी आती है,  लेकिन अब हमें सुबह का इंतजार था।

सुबह थोड़ी ठंड थी, मै और ललित जी सड़क पर निकल पड़े थे कल रात की खबर लेने। पटना के तमाम अखबार खरीद कर जब हमने खोल डाले तो खुशी के मारे आवाज नहीं निकल रही थी। सभी प्रमुख अखबारों की सुर्खियाँ कह रही थी... प्रमुख वक्ता व्यंग्यकार सुनीता शानू ने व्यंग्य को दो धारी तलवार कहा। अखबारों में छपी तस्वीरें मुझे मेरे होने का अहसास दिला रही थी।

कुछ देर में हमें वापस जाना था, रत्नेश्वर जी का वही मुस्कुराता खिलखिलता चेहरा नज़र आया जब वह हमें छोड़ने हवाई अड्डे आये, बहुत खुश थे वह, निर्विकार, सौम्य कहीं कोई मिलावट नहीं। उन्हें धन्यवाद कह मै और ललित जी दिल्ली जाने के लिये टिकिट काऊंटर आये, यहाँ पता चला कि नौ बजे जाने वाली फ्लाईट शाम तीन बजे चलेगी। पहले लगा कि समय कैसे कटेगा क्योंकि दोनों को घर पहुंचने की जल्दी थी। बातों ही बातों मे समय का ध्यान ही नहीं रहा। हाँ इस पूरे समय में लालित्य ललित जी का एक अलग ही व्यक्तित्व उभर कर आया जिसमें मैने पाया कि वह मिलनसार और सरलहृदय इंसान है, जिन्हें एक अच्छा दोस्त कहा जा सकता है।

इस तरह पटना की यह यात्रा ज़िंदगी को एक नई दिशा प्रदान कर गई... देखें अब फिर कब मिलेगा कोई नया अवसर और घिर जाऊंगी मै सवालों में और आवाज आती रहेगी “मै हूँ न” या “आप सफ़ल रहोगी मै देख रहा हूँ”।









5 comments:

  1. यात्रा संस्मरण तो अच्छा होना ही था जब अनुभव इतने अच्छे होंगे ………ढेरों बधाइयाँ

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  2. बहुत बढ़िया । आपका यह संस्मरण बताता है की प्रतिभा और गुण कभी छुपते नहीं हैं । उसे बाहर आना ही पड़ता है । माध्यम भले ही कोई भी हो । बहरहाल आपकी कामयाबी पर ढेरों मुबारकबाद । भवानी प्रसाद मिश्र जी की दो पंक्तियाँ हमेशा याद रखिएगा :
    कुछ लिख कर सो, कुछ पढ़ कर सो ।
    तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से आगे बढ़ कर सो ।

    शुभकामनाओं सहित आनंद

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  3. बहुत ही संक्षिप्त, सारगर्भित सस्मरण. एक सांस में पूरा पढ़ गया, शायद आपकी लेखनी में कोई जादू ही है.... जय हो...!!

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  4. बहुत अच्छा संस्मरण है आपने पूरी इमानदारी से लिखा है । बधाई । लेखन कि चिंता करें यश और धन तो पीछे पीछे आते हैं

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