Wednesday, December 10, 2008

बिल्ली के गले में घण्टी बाँधेगा कौन?

इ तो पहिले से छपी गया हिन्दी- मीडिया पर अपुन को तो पताईच नही चला...:)

हिन्दी-मीडिया


कब मिटेंगे आतंक के साये हर रोज यही सवाल बेचैन करता रहता है? जब कभी घर के किसी सदस्य को चोट लग जाती है हम परेशान हो जाते हैं, देखो सम्भलकर चलना कहीं ठोकर न लग जाये, जल्दी घर लौटना, किसी अजनबी से बात मत करना। न जाने कितनी ही हिदायतें हम बच्चों को दिया करते हैं, किन्तु यह बताना नही भूल पाते जब कभी आतंकी हमला हो जाये बेटा चुपके से छुप जाना या फ़िर भाग आना। चाहे कितने ही लोग पकड़ लिये गये हों तुम्हारी जान बहुत कीमती है, तुम हमारे घर के चिराग हो तुम्हारे बिना हम जी नही सकेंगे। क्या देश पर जो कुर्बान हो गये वो किसी के बेटे नही थे, किसी के पति नही थे? मगर नही हम बस खुद के बारे में सोचते हैं, मुम्बई का ब्लॉस्ट इतना गहरा नही था, अगर यही दिल्ली में होता तो शायद ज्यादा असर करता हम पर, और अगर उस ब्लॉस्ट में हमारे अपने भी शामिल होते तो कितनी गालियाँ निकालते इस भ्रष्ट राजनीति को की हम बता नही सकते। सारा दोष ही इस भ्रष्ट शासन प्रणाली का है। मुझे समझ नही आता ये नेता क्या घास काटते रहते हैं, मेरे ख्याल से इन्हें खाकी वर्दी पहन कर रात को गश्त लगानी चाहिये...जागते रहो...हाँ जागते रहो का नारा ही ठीक रहेगा।

एक ओर हम मंत्रियों से ये सवाल करते हैं की देश में आतंकवादी कैसे घुस गये, दूसरी तरफ़ हम खुद सरकार से चोरी छिपे कई काम कर जाते हैं, अगर कहीं पकड़े गये अमुक मंत्री या ऑफ़िसर का हवाला देकर या पुलिस को हजार-पाँच सौ देकर अपना पिंड छुड़ाते हैं। कितनी ही बार जाली लाईसेंस या जाली पासपोर्ट यहाँ तक की जाली साइन तक कर लेते हैं, हाँ जी आज नकली पुलिस का कार्ड, प्रेस का कार्ड, रखना हमारी शान हो गई है। यह कार्ड ही तो हमे हर चेकिंग से बचा ले ते हैं। जब हम यह सब बेफ़िक्री से कर पाते हैं तो हमारे देश में घुसपैठ क्योंकर न होगी?जो काम बार-बार हमारे देश की सेना को करना पड़ता है हम क्यों नही कर पाते? क्यों चंद आतंकियों को देख कर दहशत में आ जाते है और बस खुद को बचाने की सोचते हैं, हमारे देश की सेना को ही शायद देश पर कुर्बान होने की कसम दी जाती है, यह भी सही है उनको कुर्बानी की कीमत जो मिलती है, यह तो उनकी ड्यूटी है भैया, हमारा काम है मोमबत्ती जलाना या दो मिनिट का मौन करना, हम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से जानते हैं।

बड़ी मुश्किल से आज मीडिया यहाँ तक पहुँची है कि हमे देश के हालात का पता चल पाता है। दंगे-फ़साद कल भी इतने ही होते थे, मगर एक आम नागरिक को अपराध और अपराधी की झलक नही मिल पाती थी। किन्तु मीडिया ने यह कर दिखाया है। क्या जरूरत थी दीपक चौरसिया को कारगिल पर जाकर हमारे देश के सिपाहियों का हाल बताने की। क्या जरूरत थी मुम्बई काण्ड में छत्तीस घंण्टे से लेकर साठ घण्टे तक इन नौजवानो को दहशत में रहने की? क्या जरूरत थी रिपोर्टर्स को नजदीक से उस आतंक को देखने की? हमने तो नही कहा था ऎसा करने के लिये, कहीं एक बंदूक की गोली या एक धमाका उनकी जिंदगी ले लेता, और उनके परिवार को क्या मिलता? रिपोर्टिंग के लिये शहीद होने पर कुछ पैसा या पदक? लेकिन अभी भी लगता है ये सब टी. आर. पी. का ही चक्कर है? लेकिन क्या हममे से कोई वहाँ जा सकता था? या हम किसी अपने को वहाँ मदद के लिये भेज सकते थे? हम घर बैठे सब कुछ देख रहे थे। और देख रहे थे कि इन मरने वालो या बंधकों की भीड़ में हमारा अपना तो कोई नही? कितने घायल हुए कितने शहीद हुए...हम लम्हा रौंगटे खड़े करने वाला था। ऎसा जान पड़ता था कि आतंक के काले बादल हमारे घर पर छाये हुए हैं,फ़िर भी हम खा पी रहे थे। क्योंकि हम अपने घर में सुरक्षित थे।

सचमुच उन जाँबाज पुलिस अफ़सरों, उन वतनपरस्त देशभक्तों का और अपनी जान की परवाह न करके रिपोर्टिंग करने वालो का हमें शुक्रिया करना चाहिये, जिन्होने सारा ऑपरेशन हमे लाइव दिखा कर हमारे अंदर देशभक्ति का जज्बा पैदा किया और हम उन नेताओं को कुर्सी से हटा पाये जो सही चोकीदारी नही कर रहे थे? और अब उन रिपोर्टर्स को भी मूर्ख, अशिक्षित बता पायेंगे जो वहाँ खड़े नही, पड़े रह कर( चाहे गोली उनके सिर के ऊपर से चली जाती) रिपोर्टिंग कर रहे थें। और उन शहीद जवानों को तो सलामी मिलनी ही चाहिये जो निस्वार्थ भाव से देश की रक्षा के लिये कूद पड़े। अब ये और बात है कि किसी को उनकी कुर्बानी में भी राजनीति की रोटियां सेकने की मोहलत मिल गई।खैर इस बात का शुक्र मनाओ हम तो बच गये, हमला पडौस की मुम्बई में हुआ दिल्ली में नही। लेकिन सोचो जरा कब तक? चार-पाँच महिने बाद अगर फ़िर कोई धमाका हुआ। फ़िर कोई हमारा अपना शहीद हुआ। किसे कुर्सी से हटायेंगे? किसे गाली निकालेंगे? या फ़िर हम भी उन लाखों करोडो की तरह आँसू बहायेंगे।और इस बार इन पागल रिपोर्टरो ने भी हमे न बताया न लाइव दिखाया कि हमले में हमारा कोई अपना तो नही, हम तो कहीं के न रहे न। और अगर हमला हम पर ही हुआ तो क्या इस बार हमारा फ़ोटो टीवी पर भी नही आ पायेगा। मोमबत्ती कौन-कौन जलायेगा कैसे पता चलेगा? चलो हम भी आतंकवाद के खिलाफ़ एक मुहिम चलायें, लेकिन पहले हम ये सुनिश्चित कर ले की बिल्ली के गले में घण्टी बाँधेगा कौन?