भारत की युवा आबादी को देखते हुए ही इसे भविष्य की एक ताकत के रूप में आंका जा रहा है।लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष यह है की युवा होते भारत में बुजुर्ग दयनीय और उपेक्षित जीवन बिताने को मजबूर हो रहे हैं।अब तो वैश्विक संस्थाएं भी इसकी तसदीक करने लगी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताज़ा रिपोर्ट बताती है किभारत में बुर्जुग सिर्फ अपनों की उपेक्षा, मानसिक-आर्थिक तनाव ही नहीं झेलते कानूनी ज्यादातियों का सामना भी करते हैं। देश में इस समय 7 करोड़ 70 लाख बुर्जुग है, जो आने वाले 25 बरसों में 17 करोड़ 70 लाख होगी। बढ़ती औसत आयु के परिप्रेक्ष्य में बूढ़ों की तादाद भी बढ़ती जा रही हैं और उनकी मुश्किलें भी। देश यंगिस्तान की बात कर रहा है। ये बूढ़े जो घर के दरवाजे की सांकल होने का महत्व रखते थे, उनके बारे में कुछ करने की बात अलग, लोग सोचने को तैयार नहीं है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट पुरूष और स्त्री बुजुर्गो की समस्याओं को अलग-अलग और संयुक्त रूप से भी देखने की दृष्टि देती है। निम्न मध्य वर्ग के बुर्जग स्वास्थ्य और आर्थिक संकट से, मध्य वर्ग के बुजुर्ग आर्थिक संकट से और उच्च वर्ग के बुजुर्ग मानसिक तनाव से लगातार जूझते रहते हैं।
डब्लूएचओ की एक और रिपोर्ट पर उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार और सामाजिक संगठन और दूसरी इकाईयां कुछ गंभीरता दिखाएंगी। यह रिपोर्ट वर्ल्ड एल्डर एब्यूज अवेयरनेस डे के आसपास आई है, इसलिए इसे एक सकारात्मक शुरूआत की नींव के तौर पर देखा जा सकता है । आईएनपीईए (इंटरनेशनल नेटवर्क फार द प्रिवेंशन आफ एल्डर एब्यूज) की तरफ से 2006 में 15 जून को वर्ल्ड एल्डर एब्यूज एवेयरनेस डे के नाम से घोषित कर दिया जिसका संयुक्त राज्य तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूर्ण समर्थन किया। ऐसे में कम से कम एक दिन तो हुआ जब हम पिछली गलतियों पर सोचने की और नए संकल्प की शुरूआत कर सकते हैं।
आईएनपीए ने भी डब्लूएचओ की ताजा रिपोर्ट के पहले एक अपनी रिपोर्ट जारी की। उसके सर्वेक्षण के तथ्य भी भयावहता की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। बुजुर्गों के लिए इस एक दिन के हवाले से ही उन पर गौर करने की पहल शुरू होनी चाहिए। आईएनपीए के मुताबिक भारत में 47.3 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपने परिवार की तरफ़ से नफऱत के पात्र बन जाते हैं। देश में 48 प्रतिशत बुजुर्ग ऐसे हैं जो आर्थिक और भावनात्मक रूप से अपमानित होते हैं।उन्हे अपने ही बनाये आशियाने में रहने को जगह नही मिल पाती। ज्यादातर देखा जाता है कि इस उम्र में बुजुर्गों को अलग-थलग एक कोठरी में रखा जाता है, और वे अकेलापन महसूस करने लगते हैं, खुद-ब-खुद बड़बड़ाना शुरू हो जाता है या दीवारों से बाते करने लगते हैं। दरअसल 58 से 60 साल की उम्र से ही बुजुर्गों को मदद की आवश्यकता होने लगती है। परन्तु इसी समय बड़े हो गए उनके बच्चों की दुनिया में बुजुर्ग गैर जरूरी हो जाते हैं। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि बच्चे अपने बुजुर्गों को अनदेखा करने लगते हैं, उनकी सेहत के बारे में चिन्ता करने और समय देने की तो बात ही अलग है।
कहते हैं जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, बचपन लौट आता है, माता-पिता भी कई बार बच्चों की सी हरकते या हँसी मजाक करने लगते हैं, और बच्चे उन्हे सठियाने का नाम देकर अपमानित करते हैं। बार-बार अपनों से अपमानित हो उनमें असुरक्षा की भावना घर कर लेती हैं,और यही भावना बुढ़ापे को एक बीमारी का नाम दे देती है। टरटियरी केयर हास्पिटल के एक सर्वे कहा गया है कि 85 प्रतिशत बुजुर्ग अपनो से प्यार की कामना करते हैं,केवल 10 प्रतिशत ऐसे हैं जो जैसा माहौल मिले रहने को तैयार हैं, और 4 प्रतिशत ऐसे है जो वृध्दाश्रम में जाने को तैयार हैं, 1 प्रतिशत वे भी हैं जो इस विषय में कुछ भी कहने को तैयार नही। ये वो लोग हैं, जो ये समझते हैं कि उनके शिकायत करने से उन्ही के बच्चों की बदनामी होगी।
बड़े-बूढ़े सिर्फ अपनों की उपेक्षा के शिकार हों ऐसा नहीं है। तरह-तरह की कानूनी ज्यादातियां भी उनके हिस्से आती है। जेंडर ह्यूमन राइट्स सोसायटी के अनुसार धारा 498-ए के तहत 58000 मामले दर्ज किये जाते हैं। एक लाख से भी ज्यादा लोग झूठे मामलो में गिरफ़्तार होते है । हर 4 मिनिट में एक पुरूष पर दहेज प्रताडऩा का झूठा आरोप लगा दिया जाता है, व हर 2 घंटे 40 मिनट में एक बुजुर्ग नागरिक को दहेज की माँग के झूठे आरोप में फ़ंसा दिया जाता है। अलग-अलग सामाजिक संगठनों से इस संबंध में आवाज उठी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस संबंध में पड़ताल करके रिपोर्ट जारी की है।
डब्लूएचओ की रिपोर्ट एक आधार बनी जिसके चलते सन 2007 में एक बिल पारित हुआ जो बुजुर्गों की देखभाल व कल्याण के लिये था,जिसका मुख्य उद्देश्य था, बुजुर्गों की सहायता करना व उनके सम्मान की रक्षा करना था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्देश दिए कि संतान को मां-बाप की देखभाल करनी ही होगी। इस कानूनी मजबूती से बुजुर्गों के पक्ष में एक रास्ता तो बना, लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में कितने बुजुर्ग अपनी औलादों के खिलाफ अदालतों में खड़े मिलेगें। कितने अजीबो-गरीब बात है कि देश के हर सरकारी दफ्तर में तबादले के लिए दिए जाने वाले आवेदन में एक खास मजमून लिखा होता है कि फलां की मां की तबियत खराब रहती है या पिता अतिवृद्ध हैं और उनकी देखभाल की जरूरत है। लेकिन हकीकत क्या है, इसको विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरी रिपोर्टस बताती हैं। भारतीय परंपरा के किस्सों और बुजुर्गो के सम्मान से भरे साहित्य के बीच मौजूदा हकीकत से साक्षात करने का साहस हम कब जुटाएंगे।