कभी-कभी कुछ चीज़े विशेष होती हैं, और आपसे लिखवाकर ही दम लेती हैं, ज़िक्र होना भी चाहिए, किसी भी रचना को लिखने के बाद, या पुस्तक के प्रकाशन के बाद उस पर पाठक का हक़ हो जाता है, अतः उसी पाठकीय धर्म को निभाते हुए मै आपको एक ऎसे विशेषांक से रु-ब-रु करवाने जा रही हूँ जिसका सम्पादन करना आसान तो कतई नहीं था, अपितु नए विवादों को खड़ा भी कर सकता था, विशेषांक को पढ़कर आप संपादक की सजगता और कार्यकुशलता का अंदाजा लगा सकते हैं।
तो मै आपको बताना चाहूँगी कि आज मैने कथा पत्रिका का मीराँबाई विशेषांक पढा, यह मार्कण्डेय जी के देहावसान के बाद वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ था, इस अंक का सम्पादन डॉ अनुज के द्वारा हुआ था।
यदि आप इस अंक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँ बाई पर लिखा गया यह एक दुर्लभ अंक हैं इसमें 30 लेखकों के लेख भी शामिल है, जो मैं धीरे-धीरे पढूंगी। अभी मैंने सबसे पहले सम्पादकीय और यात्रा संस्मरण पढ़ा। जिससे यह पता चला कि इस अंक को निकालने के लिए अनुज को कितनी सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। डॉ अनुज ने मीराँबाई अंक को निकालने के लिए खुद यात्राएं की, उन यात्राओं में मीराँबाई से संबंधित हर सामग्री एकत्र की, लोगों से मुलाक़ातें की, लेखक ने मीराँबाई पर लिखने से पहले जिस तरह से दर-दर भटककर मीराँ को समझने की कोशिश की है, मीराँ की हर पीड़ा को आत्मसात किया है उससे इस अंक की गुणवत्ता का सीधे-सीधे पता लगता है।
इंटरनेट के समय में जबकि सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है, कितने संपादक हैं ऐसे जो किसी भी पत्रिका को निकालने के लिए पूरी तरह ईमानदार रहते हैं, यह सच है कोई भी पत्रिका हो या अखबार उसकी गुणवत्ता का पता संपादक की ईमानदारी पर निर्भर करता है। यदि पुराने तथ्यों के आधार पर मीराँबाई विशेषांक निकाला जाता तो मुझे नहीं लगता कि यह इतना विशेष बन पाता।
लेखक ने यात्रा संस्मरण में मीराँबाई के जन्मस्थल से लेकर अंतिम पड़ाव तक तथ्यों की खोज की। अब तक ना जाने कितने लोग मीराँबाई को भक्ति काल की एक कवयित्री ही मानते रहे होंगे। लेकिन आप इस विशेषांक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँबाई एक कवयित्री ही नहीं एक समाज सुधारक, एक विद्रोही स्वर थी। वह जानती थी कि सीधे-सीधे किसी भी सामाजिक प्रथा का विरोध करना मुश्किल होगा, अशिक्षित व धर्मांध जनता ऊंच-नीच के फेर से निकल नहीं पाएगी, सबको एक ही जगह एकत्र करने का एक मात्र तरीका कृष्ण भक्ति ही थी। अतः मीराँबाई ने बहुत सोच समझ कर भक्ति मार्ग को चुना था।
डॉ अनुज ने अपनी बात में पाठकों के सामने कई सवाल रख छोड़े हैं, यदि मीरा बस एक भक्त ही होती तो उसे राजमहल छोड़ना क्यूं पड़ता, मीरा को मारना तो बहुत आसान होता, तो क्यों सांप या ज़हर के द्वारा खत्म करने की साज़िश की गई।
आपने यह भी सुना होगा कि मीराँ अंत में कृष्ण में लीन हो गई थी। लेख में इस बात को भी पूरी तरह से नकारते हुए लिखा है कि मीराँ की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबराकर ही सत्ता ने उनकी हत्या करवाई होगी, और उनका शरीर भी गायब कर ऐसी कहानी बना दी गई होगी, जिससे धर्मभीरू जनता में राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह न भड़के।
यह अंक सचमुच पाठक को सोचने के लिए विवश कर देता है, भाषा की सरलता पठनीयता को बनाए रखती है और अंत तक मीराँबाई को जानने समझने की उत्सुकता बनी रहती है।
मीराँबाई विशेषांक आपको भी पढ़ना चाहिए और मीराँ के जीवनकाल के पन्नों को एक बार फिर पलटना और समझना चाहिए। ताकि मीराँबाई सिर्फ पदों और भजनों में न रह जाए, समाज के लिए दिया गया उनका बलिदान आने वाली पीढ़ियां भी जरूर समझ पाएं। इस विशेषांक के लिए सम्पादक को बहुत-बहुत बधाई। आशा है इस तरह की सामग्री को किताब के रूप में रखा जाए ताकि पाठ्यक्रम में भी उपयोग हो और आने वाली पीढ़ी को सच्चाई से अवगत कराया जा सके।
लिखना अभी और भी है बाकि फिर कभी...
सुनीता शानू