कालों के काल महाकाल की नगरी उज्जैन जाने का
अवसर मिला। यूं तो ज्ज्जैन के कई नाम हैं मुख्यरूप से उज्जैन को उज्जयिनी के नाम
से पुकारते हैं। उज्जैन आज भी भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को बचाए हुए
हैं, यहाँ लगने वाला कुम्भ का मेला जग प्रसिध्द है। इसे सिंहस्थ महापर्व के नाम से
जाना जाता है। उज्जैन नगरी को अच्छी तरह से देखने समझने के लिए एक महीना भी कम है,
लेकिन मेरे पास तो सिर्फ़ दो ही दिन थे,इन दो दिन में उज्जैन घूम पाना नामुमकिन था,
कारण एक और भी था, वह था उज्जैन जाने का मकसद। मुझे उज्जैन में चल रहे पुस्तक मेले
का निमन्त्रण मिला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत की तरफ़ से, यह मेरे लिए एक खुशी की
बात थी, कि मुझे महाकाल की नगरी में जाकर व्यंग्य पाठ करना था, लेकिन दो दिन का जाना भी मेरे रोमांच को कम
नहीं कर पाया था...
शुक्रवार का दिन था, मालवा सुपरफ़ास्ट कुछ ज्यादा ही फ़ास्ट थी, सब दोस्तों ने आगाह
किया कि समय पर पहुंचना मुश्किल होगा, मालवा दस से बारह घंटे तक लेट हो जाती है,
खैर वही तो होगा जो ईश्वर को मंजूर होगा,मेरी भोपाल में रह रहे मित्र आनंदकृष्ण से बात हुई, आनंद ने कहा मै हर हाल में तुम्हे
भोपाल स्टेशन पर मिलूंगा, आनंद का जन्म दिन भी था तो सोचा एक साथ दो काम होंगे,
लेट होते-होते करीब सुबह के साढे नौ बजे ट्रेन भोपाल जंकशन पहुंची, मै ट्रेन से
नीचे उतर आनंद का इंतजार करने लगी, तकरीबन बीस मिनिट ही बीते होंगे ट्रेन के सायरन
की आवाज आने लगी, साथ ही आनंद का फोन कि तुम कहाँ हो, मै स्टेशन पहुंच गया हूँ, मै
चारों तरफ़ देख रही थी दोस्त को एक झलक भी देख पाती, कि ट्रेन चल पड़ी, मै जल्दी से
ट्रेन में चढ़ गई, आनंद दूर खड़ा जाती हुई ट्रेन को देख रहा था, और हाथ में पकड़े था
नाश्ते का डिब्बा। हम भारतीय भी न इन्ही सब उलझनों में उलझे रहते हैं उसने खाना
खाया कि नहीं, उसने पानी पिया की नहीं, भूल जाते हैं दोस्त से मिलकर भूख-प्यास
जैसी चीज़े महसूस नहीं होती।
खैर मेरी ट्रेन भोपाल से रवाना हो चुकी थी और
अब बारी थी उज्जैन जंक्शन की, न्यास प्रभारी हिंदी संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा हर
थोड़ी देर के बाद पता कर रहे थे ट्रेन कहाँ तक पहुंची, मेरे बार-बार यह कहने पर कि मै खुद पहुंच जाऊंगी, उन्होने कहा कि यह उनका
कर्तव्य है आपको लेने गाड़ी आयेगी। हुआ भी वही स्टेशन पर ठीक समय गाड़ी आई और मै
पहुंची शिप्रा रेजिडेंसी...
शिप्रा रेजिडेंसी मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के
अंतर्गत आता है, जो स्टेशन जाने वाली सड़क पर ही बना है, इसमें सभी साहित्यकारों के
रुकने की व्यवस्था थी, होटल साफ-सुथरा और खूबसूरत था, खाना भी बेहद लजीज था,
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की तरफ़ से हमेशा से ही साहित्यकारों के स्वागत में कोई कमी
नहीं रखी जाती है।
स्वागत में ललित किशोर मंडोरा तथा व्यंग्य महारथी अरविंद तिवारी
जी के साथ चाय पानी लिया गया, कुछ देर आराम किया गया, शाम पाँच बजे पुस्तक मेले में अरविंद तिवारी जी
तथा मुझे लेकर गाड़ी पुस्तक मेले के लिए
निकली। उज्जैन की साफ़-सुथरी सड़को को देखकर बहुत अच्छा लगा, धार्मिक स्थल होने के
बावजूद कहीं कोई गंदगी नजर नहीं आ रही थी।
होटल से कुछ ही दूरी पर कालिदास संस्कृत अकादमी
परिसर में पुस्तक मेला लगा हुआ था। जैसे ही भीतर प्रवेश किया चारों तरफ़ किताबों की
खुशबू बटोरते लेखक, पाठक नज़र आए, मन खुशी से भर गया, चेहरे पर खुशी अपने-आप आ गई,
जैसे एक ही बिरादरी के लोग अपने लोगों को देखकर खुश हो जाते हैं, मेरी नजरे उन
अनजान लोगों में कोई जाना-पहचाना सा चेहरा ढूँढने लगी, प्रकाशन स्टॉल जरूर जाने
पहचाने से थे, लेकिन प्रकाशक कम ही पहचाने जा रहे थे, फिर भी खुशी लिपटी रही कि एक
बिरादरी के तो हैं ही ...
थोड़ा और चलते ही लेखक मंच नजर आया, कुछ जाने-पहचाने
से चेहरे थे, तो कुछ अपनेपन का अहसास दिला रहे थे, स्वागत पिलकेंद्र अरोरा जी ने
किया, एक बेहद मिलनसार और हंसमुख व्यक्तित्व, पास ही छुपे-छुपे, सहमे-सहमे से खड़े
थे हरीश जी, मुझे लगा शायद ये कोई और हैं, वह भी शायद मुझे पहचान नहीं पा रहे थे,
कुछ ही देर में सबको मंच पर बुलाया गया तब पता चला यह तो हरीश सिंह ही है मेरे
पुराने मित्र। अब व्यंग्य का सत्र शुरु हुआ तो सबकी हालत देखने लायक थी, आठ
व्यंग्यकार मंच पर थे, और सामने बैठे निरीह श्रोतागण, देखकर लग रहा था कब कौनसा
बाण किधर से चलेगा यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं, मुझे लगता है जनता
व्यंग्यकारों को कोई अच्छा प्राणी नहीं समझती है, हाँ समझ भी ले यदि व्यंग्यकार
कुछ हॉस्य में लिपटी हुई रचनाए सुना दे... जैसे की पिलकेंद्र अरोरा जी का संचालन
था, देखकर उनके मंजे होने का पूरा विश्वास हो गया था।
कार्यक्रम की शुरूआत में इंदौर आये सौरभ जैन के
व्यंग्य से की गई थी। सौरभ उम्र में छोटे जरूर हैं मगर उन्होनें व्यंग्यकारों ही
नहीं कवियों के मंच की चकाचौंध पर भी तीर चला दिए, इसके बाद आये दिनेश दिग्गज
जिन्होनें अपने हंसमुख अंदाज में कुछ छोटे-छोटे व्यंग्य सुनाकर श्रोताओ को आकर्षित
किया, अभी श्रोताओं में चहल-पहल हो ही रही थी कि उज्जैन के ही व्यंग्यकार हरीश
सिंह जी ने को व्यंग्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया, हरीश जी ने नजरों पर एक बेहद
शानदार व्यंग्य सुनाया, अब भला किसकी नजर किस पर है, कौन किसकी नज़र में है यह एक
व्यंग्यकार से कैसे बच सकता था, सो सबकी नज़रों के कारनामें खोल कर खूब तालिया
बटोरी हरीश जी ने,इसके बाद मुकेश जोशी जी ने हिन्दी पखवाड़े पर करारा वार किया, अभी
श्रोता संभल भी नहीं पाए थे कि पिलकेंद्र जी ने मंच पर आसीन इकलौती व्यंग्यकार
यानि की मुझे व्यंग्य सुनाने के लिये आमंन्त्रित किया, मै बहुत देर से देख रही थी,
श्रोताओं की भीड हो या मंच पर बैठे व्यंग्यकार मोबाइल से दूर हो ही नहीं पा रहे
थे, यदि मै दस तक गिनती करूं तो दस में से चार बार मोवाइल पर कोई मैसेज चमकता था,
और सुनना छोड़ आंखें मैसेज पढ़ने में लग जाती थी, कुछ तो ऎसे भी थे जो बार-बार यह
चेक कर रहे थे, मोबाइल की न लाइट जली न घंटी बजी, कुशल तो है न... खैर मैने मोबाइल
की पीड़ा से लिपटी रचना सुना डाली, अब यह किसी को सहन कैसे हो पाती, भला ऎसे
व्यंग्यबाण आजकल के बच्चे तो सह ही नहीं पाते, खैर चुनाव भी आने ही वाले हैं और हम
ठहरे दिल्ली से तो सोचा फिर कब आना होगा उज्जैन तो एक रचना और सुना ही देते हैं,
संचालक की आज्ञा लेकर चुनावी गालियों की आँनलाइन शॉपिंग करवा डाली, मेरे खयाल से
सबने गालियों की सुविधानुसार ऑनलाइन बुकिंग भी कर ही दी होगी। मेरे बाद आये ललित किशोर मंडोरा उर्फ़ लालित्य
ललित उन्होने आते ही विलायती राम पांडेय और उनके सारे किरदारों के साथ ऎसा समा
बाँधा कि उज्जैन के लोग अभी तक उसी देविका गजोधर को ही ढूँढ रहे होंगें। मंच का
संचालन कर रहे पिलकेंद्र अरोरा का जब नंबर आया तो सबकी निगाह उनकी तरफ़ थी,
उन्होनें काव्यात्मक लहजे में व्यंग्य की शुरूआत की आह बाबा वाह बाबा... सुनकर
सबको बहुत मजा आया, ये एक ऎसा व्यंग्य था जो हंसी-हंसी में बाबाओं की जीवन शैली
पर, बाबाओं के गलत तरीको पर प्रहार कर गया, और उनसे बचने की सलाह भी दे गया... अब
अंतिम वक्ता के रूप में वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी जी को बुलाया गया। अरविंद
जी का व्यंग्य पढ़ने का अलग ही अंदाज़ था, उन्होने विश्व पुस्तक मेले पर अपनी रचना
सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। व्यंग्य पाठ का दिन सचमुच यादगार रहा।
वापस आते वक्त हल्की सी बूंदा बांदी शुरू हो
गई... हम सब लौटकर होटल आ गए, रात्रि भोजन किया और विश्राम किया गया।
रात ही संजय जोशी भैया का फोन आया कि वह सुबह
मुझसे मिलने आ रहे हैं, सुनकर बहुत अच्छा लगा, कि कोई रतलाम से चलकर आपसे मिलने आ
रहा है। सुबह मै जल्दी ही उठ जाती हूँ, संजय भैया सुबह साढे सात बजे रतलामी सेव के
साथ होटल पहुंच गए, उनके स्वागत में ललित जी ने चाय नाश्ते का प्रबंध किया, खूब
बातें की मैने अपनी किताबें संजय भैया को भेंट की, अरविंद जी ने भी अपनी किताब
भेंट की, उन्होनें हम तीनों को रतलामी सेव भेंट की। साथ ही हमने फोटो भी खींच ली, संजय भैया एक अच्छे लेखक ही नहीं सचमुच एक सरल
हृदय रचनाकार भी हैं, उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। महसूस ही नहीं हुआ कि यह हमारी
पहली मुलाकात थी।
संजय भैया को विदा करके हम सभी व्यंग्यकार
पिलकेंद्र अरोरा जी के आतिथ्य में हाजिर हुए, पिलकेंद्र अरोरा और उनकी धर्मपत्नी
का अतिथि सत्कार सचमुच भावविहल करने वाला था, जलेबी, पोहा, ढोकला, पकौड़े और चाय के
साथ सबने व्यंग्य सुनाए, कविताएं सुनी, समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। आसमान का
बरसना तो कम नहीं हुआ, लेकिन हमें उठना पड़ा।
ललित जी को होटल छोड़ कर मै और अरविंद जी हरीश
जी की गाड़ी में घूमने निकल गए, हरीश जी जितने अच्छे व्यंग्यकार हैं उतने अच्छे
मित्र भी हैं, पूरे शहर की परिक्रमा करते हुए हम मंदिर और गुरुद्वारे के दर्शन
करते रहे, हरीश जी बोलते हुए, सड़क और मंदिरों का परिचय देते रहे, बीच-बीच में
अरविंद जी अपने अनुभव बताते रहे... माँ हर सिध्दी देवी मंदिर तथा गढ़कालिका माता
मंदिर के दर्शन करने के बाद कुछ तस्वीरे शिप्रा नदी के घाट की भी खींच ली, इतने
में ललित जी का फोन आ गया, आप तैयार रहें शाम को आप सबको लेने गाड़ी आयेगी, पांच
बजे से काव्यपाठ का आयोजन है। बरसात बढ़ती जा रही थी, अरविंद जी रास्ते में ही एक
होटल पर रुक गए, और हरीश जी ने मुझे होटल छोड़ दिया।
शाम का वक्त था, बारिश ने उज्जैन में रैड अलर्ट
कर दिया था, हम पुस्तक मेले पहुंचे तो देखा न लेखको की संख्या में फ़र्क था, न ही
पाठकों की संख्या में, बल्कि आज पहले की अपेक्षा अधिक भीड़ थी, और महिलाओं की
संख्या बहुत अधिक थी, बाद में पता चला कि यह सब तो इंदौर और उज्जैन नगरी से आई
कवियित्रियाँ हैं जो काव्यपाठ के लिए आई थी, और साथ में थे उनके पति बच्चे,
सास-ससुर, माता-पिता, बहन-बहनोई, अड़ौसी-पड़ौसी... यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि आज
मंच पर भी भीड थी तो श्रोता भी भारी संख्या में रहे... सभी ने एक से बढ़कर एक
,कविता, गीत, तथा ग़ज़ल सुनाई, चित्रा जी का संचालन भी गजब रहा,शुरुआत हुई सुषमा
व्यास जी की सरस्वति वंदना के द्वारा, इसके बाद अदिति भदौरिया ने पिता पर बेहद
संवेदनशील कविता सुनाई, प्रेम शीला जी ने मुक्तको से समा बाँध दिया, क्षमा
सिसोदिया की ग़ज़ल और पुष्पा चौरसिया जी की काविता मन संयासी हो जाता है सुनकर
श्रोताओं ने खूब तालियां बजाई,सुषमा व्यास ने कविता के अलग ही रंग दिखाए, कभी वह
शब्दों को चाँद तक ले गई तो कभी माँ के पल्लू में रुपया अट्ठन्नी चवन्नी के रूप
में बाँध आई, सीमा जोशी जी के गीतों के साथ सभागार में सभी गुनगुनाने लगे, बेहद
सुरीली मीठी आवाज में उन्होने मालवी गीत भी सुनाया, जो मुझे समझ नहीं आया लेकिन
स्थानीय लोगों ने खूब प्रशंसा की। इसके बाद डॉ पांखुरी जोशी की धारदार कविताएं
किसी व्यंग्य से कम नहीं थी, इसके बाद चित्रा जैन ने बेहद खूबसूरत कविता सुनाई जीना चाहता हूँ,
चित्रा जी के बाद वंदना गुप्ता जी की कविता की भी सराहना हुई और अंत में नंबर आया
मेरा, मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में बिठा दिया गया था, मैने भी दो गीतों का पाठ
किया, और दिल वालों की नगरी दिल्ली की तरफ़ से उज्जयनी को संदेश दिया कि वस्तुतः
दिल वाले तो महाकाल की नगरी उज्जैन में ही रहते हैं।
कार्यक्रम के अंत में सभी रचनाकारों ने न्यास तथा
ललित किशोर मंडोरा का आभार व्यंक्त किया, इस मौके पर उन्हे शॉल उढाई और मोतियों की
माला पहनाई गई। सभी की आँखें नम थी, करीब तीस सैंकिंड तक सबने करतल ध्वनि में अपना
प्रेम प्रदर्शित किया। कुल मिलाकर उज्जैन पुस्तक मेला एक यादगार अमिट छाप छोड़ गया
है, वहाँ हम दिल्ली वाले सचमुच दिल हार कर आ गए...।
सुनीता शानू